________________ समकित-प्रवेश, भाग-7 211 मनिराज का अंतरंग परिग्रह में मिथ्यात्व का तो पूरी तरह से त्याग (अभाव) है और तीसरे स्तर तक की कषाय का त्याग (अभाव) है यानि कि मुनिराज का अपने में अपनापन पूर्णरूप से है और लीनता तीसरे स्तर तक की है यही उनका निश्चय अपरिग्रह महाव्रत है। बहिरंग परिग्रह में मुनि योग्य उपकरणों को छोड़कर सभी परिग्रह का त्याग है। उपकरणों के अलावा वे तिल-तुष मात्र भी परिग्रह नहीं रखते। प्रवेश : भाईश्री ! यदि इन पाँच महाव्रतों में से कोई एक भंग हो जाये तो? समकित : यथार्थ में तो एक महाव्रत भंग होने से पाँचों महाव्रत भंग हो जाते हैं क्योंकि भावात्मक-रूप-से सभी एक ही हैं। आत्मा में रागादि भावों की उत्पत्ति ही हिंसा है, वही झूठ, चोरी, कुशील व परिग्रह संग्रह है। भेद तो सिर्फ समझाने के लिये व्यवहार से किये गये हैं। प्रवेश : भाईश्री ! महाव्रत का स्वरूप तो समझ में आ गया। अब मुनिराज की पाँच समितियों का स्वरूप और समझा दीजिये। समकित : आज नहीं कल। धन्य वह निर्ग्रन्थ मुनिदशा ! मुनिदशा अर्थात् केवल ज्ञान की तलहटी। मुनि को अंतर में चैतन्य के अनंत गुण-पर्यायों का परिग्रह होता है, विभाव बहुत छूट गया होता है। बाह्य में श्रामण्यपर्याय के सहकारी कारणभूतपने से देहमात्र परिग्रह होता है। प्रतिबंध-रहित सहज दशा होती है, शिष्यों को बोध देने का अथवा ऐसा कोई भी प्रतिबंध नहीं होता। स्वरूप में लीनता वृद्धिंगत होती है। मुनि एक-एक अन्तर्मुहूर्तमें स्वभावमें डुबकी लगाते हैं। अंतरमें निवास के लिये महल मिल गया है, उसके बाहर आना अच्छा नहीं लगता। मुनि किसी प्रकारका बोझ नहीं लेते। अन्दर जायें तो अनुभूति और बाहर आयें तो तत्त्वचिंतन आदि। साधकदशा इतनी बढ़ गई है कि द्रव्यसे तो कृतकृत्य हैं ही परन्तु पर्यायमें भी अत्यन्त कृतकृत्य हो गये हैं। -बहिनश्री के वचनामृत 1.abstractively