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________________ 184 समकित-प्रवेश, भाग-6 है। अतः वह बाह्य प्रतिज्ञा धारण करता है और अपने आत्मलीनता के तीव्र पुरुषार्थ के माध्यम से दूसरे स्तर की आत्मलीनता (शुद्धि) भी प्रगट कर लेता है और साथ में बाह्य प्रतिज्ञायें भी पलती रहती हैं। उसकी पाँचवें गुणस्थान लायक आत्मलीनता (वीतरागता) निश्चय प्रतिमा है और साथ में सहज रूप से रहने वाला बाह्य प्रतिज्ञा को पालने का शुभ राग व्यवहार प्रतिमा व तत्संबंधी' बाह्य-क्रिया व्यवहार से व्यवहार प्रतिमा हैं, क्योंकि जीव के भावों और बाह्य क्रिया के बीच निमित्त-नैमित्तिक संबंध होता है। प्रवेश : व्रती श्रावक की कितनी प्रतिमायें होती हैं ? समकित : श्रावक की एक के बाद एक ग्यारह प्रतिमायें होती हैं। प्रवेश : हर प्रतिमा के साथ आत्मलीनता (वीतरागता), बाह्य प्रतिज्ञा पालने का शुभ राग व तत्संबंधी बाह्य क्रियाएं भी बढ़ती चली जाती होगी? समकित : हाँ बिल्कुल ! जैसे मान लो कि चौथे गुणस्थान वाले जीव की आत्म लीनता बढकर दूसरे स्तर की होने वाली हो तब उसको व्यवहार सम्यकदर्शन के अंगों का निर्दोष पालन, अष्टमूल गुण पालन और सप्त-व्यसन के त्याग की प्रतिज्ञा लेने का शुभ राग सहज रूप से आये बिना नहीं रहता और वो प्रतिज्ञा धारण कर लेता है व अपने तीव्रपुरुषार्थ के बल से दूसरे स्तर की आत्मलीनता भी प्राप्त कर लेता है और साथ में प्रतिज्ञा भी पलती रहती है। पंचम गुणस्थान वाले श्रावक की दूसरे स्तर की आत्मलीनता (वीतरागता) निश्चय दर्शन-प्रतिमा है और व्यवहार सम्यकदर्शन के अंगों का निर्दोष पालन, अष्टमूल गुण पालन और सप्त-व्यसन त्याग की प्रतिज्ञा पालने का शुभ-राग व्यवहार दर्शन-प्रतिमा है व तत्संबंधी बाह्य-क्रिया व्यवहार से व्यवहार दर्शन-प्रतिमा है। प्रवेश : ओह ! दर्शन-प्रतिमा पहली प्रतिमा है ? 1. related 2.physical-activities 3.intense-efforts
SR No.035325
Book TitleSamkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalvardhini Punit Jain
PublisherMangalvardhini Foundation
Publication Year2019
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size117 MB
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