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________________ 180 समकित-प्रवेश, भाग-6 प्रथमानुयोग में कहीं-कहीं प्राथमिक (निचली) भूमिका वाले जीव को धर्म में लगाने के लिये लौकिक इच्छा (कामना) से पूजा-भक्ति आदि करने वालों की भी प्रशंसा कर देते हैं, जबकि लौकिक कामना से पूजा-भक्ति आदि करने से सम्यक्त्व के निःकांक्षित अंग का नाश होता है और यह निदान नाम का आर्त-ध्यान भी है, लेकिन प्रथमानयोग में निचली भूमिका वाले जीवों को कुदेव आदि की शरण में जाने से रोकने के लिये ऐसा करने वालों की प्रशंसा कर दी जाती है, लेकिन इस कारण से आत्म-कल्याण के इच्छुक जीवों को लौकिक कामना पूर्वक धर्म आराधाना' करना ठीक नहीं है। धर्मात्माओं को तो धर्म कार्यों में हमेंशा वीतरागता की प्राप्ति की भावना ही भानी चाहिये। जैसा कि हमने देखा कि द्रव्यानयोग की मुख्य विषय-वस्तु शुद्धात्मा और उसका अनुभव (ज्ञान-श्रद्धान-लीनता) है। उसके लिये प्रयोजनभूत-तत्वों का यथार्थ निर्णय व स्व-पर भेदविज्ञान अत्यंत आवश्यक (जरुरी) है इसलिये प्रयोजनभूत-तत्व और स्व-पर भेद विज्ञान भी द्रव्यानुयोग का विषय है। द्रव्यानुयोग में आज्ञा की नहीं परीक्षा-तर्क, हेतु', दृष्टांत व स्वानुभव की प्रधानता है। क्योंकि द्रव्यानयोग का उद्देश्य प्रयोजनभूत तत्वों में कौन से तत्व ज्ञेय हैं, कौन से तत्व हेय हैं और कौन से तत्व उपादेय हैं, यह निर्णय कराना है ताकि यथार्थ श्रद्धान हो, स्व-पर भेद विज्ञान का अभ्यास हो और आत्मानुभूति प्रगट हो। द्रव्यानुयोग में आत्मानुभव (शुद्ध भाव/वीतराग भाव) की महिमा बतलाते हैं और बाह्य व्रत, तप, शील, संयम और शुभ राग (अशुद्धभाव) को गौण करते हैं ताकि जो जीव सिर्फ बाह्य-व्रत, तप आदि क्रयिाओं और शुभ राग (अशुद्ध भाव) में ही मग्न हैं व आत्मानुभव (वीतरागता/शुद्ध भाव) का पुरुषार्थ नहीं करते, उनका कल्याण हो और वे सच्चे मार्ग को पहिचाने, लेकिन ध्यान रहे कि यहाँ शुभ-भाव को गौण अशुभ-भाव में ले जाने के लिये नहीं करते हैं बल्कि वीतराग भाव (शुद्ध-भाव) में ले जाने के लिये करते हैं। 1.practice 2.logic 3.motive 4.examples 5.self-realization 6.practice 7.subside 8.satisfied
SR No.035325
Book TitleSamkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalvardhini Punit Jain
PublisherMangalvardhini Foundation
Publication Year2019
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size117 MB
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