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________________ समकित-प्रवेश, भाग-6 169 और तो और बाह्य कषायों में भी तीव्र-कषाय यानि कि अशुभ-राग (पाप-भाव) को तो कषाय जानता व मानता है लेकिन मंद-कषाय यानि कि शुभ-राग (पुण्य-भाव) को न कषाय जानता है, न मानता है। जबकि दोनों ही अशुद्ध-भाव रूप होने से आश्रव हैं, बंध के कारण हैं। इसीकारण इस जीव ने पूर्व में भी बाह्य कषायों को दबाने का या मंद करने का पुरुषार्थ तो अनेक बार किया है, लेकिन कषायों के अभाव यानि कि शुद्धात्मा में लीन होने का पुरुषार्थ आज तक न करने के कारण निरंतर' दुःखी और आकुलित हो रहा है। प्रवेश : अरे ! ऐसा तो कभी सोचा ही नहीं। समकित : हाँ! 5. योग- यह जीव द्रव्य मन, वचन व काय की चेष्टा (क्रिया) को तो योग जानता व मानता है, लेकिन अंतरंग योग यानि आत्मा के प्रदेशों का कंपायमान (चंचल) होना ही वास्तविक योग है, ऐसा न जानता है, न मानता है। प्रवेश : यह तो वास्तव में बहुत बड़ी भूलें हैं। क्या आश्रव-तत्व संबंधी जीव की यही भूलें रह जाती हैं या और भी कुछ भूलें हैं ? समकित : मुख्य भूलें तो यही हैं, बाकी इनका विस्तार तो बहुत है, लेकिन अभी के लिये इतना ही काफी है। लेकिन एक जो सबसे बड़ी भूल है वह यह है कि शास्त्र में हर जगह मिथ्यात्व के दोष को पहाड़ बराबर (बड़ा) और कषाय (अविरति आदि) के दोष को राई बराबर (छोटा) बताया है, लेकिन धर्म क्षेत्र में आकर भी इस जीव के सारे प्रयास पहले में पहले अविरति आदि का अभाव करने पर केन्द्रित होते हैं, मिथ्यात्व का बड़ा दोष इसको दोष जैसा ही नहीं लगता। जबकि सच्चाई तो यह है कि मिथ्यात्व का अभाव यानि कि शुद्धात्मा में अपनापन किये बिना, कषाय (अविरति आदि) का अभाव यानि कि शुद्धात्मा में लीनता हो ही 1.continuously 2.vibrate 3.actual 4.Major 5.detail 6.fault
SR No.035325
Book TitleSamkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalvardhini Punit Jain
PublisherMangalvardhini Foundation
Publication Year2019
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size117 MB
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