________________ समकित-प्रवेश, भाग-5 149 समकित : हाँ, आत्मा के ज्ञान-दर्शन आदि अनंत गुण शाश्वत व शुद्ध हैं और शुद्ध आत्मा के साथ त्रिकाल (हमेंशा/स्थिर) रहेने वाले हैं। शुद्ध-आत्मा, ज्ञान-दर्शन आदि अनंत गुणों का ही समूह है यानि कि शुद्ध-आत्मा में यह अनंत गुण मौजूद हैं लेकिन (दृष्टि के विषय) शुद्ध-आत्मा में इन अनंत गुणों का भेद मौजूद नहीं है। शुद्ध-आत्मा इन अनंत गुणों का एक अखंड-पिंड' है। इसीलिये इन गुणों का भेद भी व्यवहार नय का विषय होने से शुद्धात्मा की सीमा से बाहर है। क्योंकि किसी भी प्रकार के भेद आदि को ज्ञेय, श्रद्धेय और ध्येय बनाने से भी आकुलता (दुःख) ही उत्पन्न होती है। प्रवेश : तो फिर वह शुद्धात्मा कौन है जो ज्ञेय, श्रद्धेय और ध्येय है ? जिसके ज्ञान, श्रद्धान और ध्यान से आकुलता(दुःख)का नाश और निराकुलता (सच्चे सुख) की प्राप्ति होती है ? समकित : स्त्री, पुत्र, मकान, शरीर आदि से भिन्न, मोह-राग-द्वेष, सम्यकदर्शन ज्ञान-चारित्र आदि पर्याय से अन्य और ज्ञान-दर्शन आदि गुणभेद से पार, परमशुद्ध निश्चय नय (शुद्धनय) का विषय, अनंत शुद्ध और शाश्वत गुणों का एक अखंड-पिंड, त्रिकाली-ध्रुव (हमेशा एक जैसा रहने वाला) भगवान-आत्मा ही शुद्ध-आत्मा है, जो ज्ञान का ज्ञेय, श्रद्धा का श्रद्धेय और ध्यान का ध्येय है यानि कि दृष्टि का विषय है। जिसके ज्ञान (सम्यकज्ञान), श्रद्धान (सम्यकदर्शन) और ध्यान (सम्यकचारित्र) से आकुलता (दुःखों) का नाश और निराकुलता (सच्चे सुख) की प्राप्ति होती है, यानि कि आत्मा को पर द्रव्य से भिन्न, पर्यायों से अन्य व गुणभेद से पार जानने, मानने व जानते-मानते रहने से ही निराकुलता की प्राप्ति होती है। प्रवेश : यदि ऐसा है तो फिर व्यवहार नय के विषयभूत आत्मा की बात शास्त्रों __में की ही क्यों ? बस एक परमशुद्ध निश्चय नय (शुद्धनय) के विषयभूत त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा (शुद्धात्मा) की ही बात शास्त्रों में करनी चाहिये थी? समकित : इस प्रश्न का उत्तर तुमको अगले पाठ में मिल जायेगा। 1.integrated-mass 2.subject