________________ 134 समकित-प्रवेश, भाग-5 प्रवेश : मैं तो समझता था कि जो जीव और पदगल को चलाये उसे धर्म द्रव्य और जो चलते हुये जीव व पुद्गल को रोके उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं। समकित : यदि ऐसा मानेंगे तो इस विश्व (लोक) में धर्म और अधर्म द्रव्य दोनों ही हमेंशा मौजूद हैं। एक जीव और पुद्गल को चलाने का प्रयास करेगा और उसी समय दूसरा उन्हें रोकने का। यानि कि दोनों अपनी-अपनी ताकत' वितरीत-दिशा में लगायेंगे तो ऐसे तो जीव और पुद्गल की चटनी बट जायेगी। प्रवेश : हा...हा...हा...! समकित : वास्तव में तो जीव और पुद्गल दोनों द्रव्यों में एक क्रियावती शक्ति नाम का गुण पाया जाता है। जब उस गुण की गति रूप पर्याय होती है तो जीव और पुद्गल स्वयं गति करते हैं और जब उस गुण की स्थिति रूप पर्याय होती है तो चलते हुये जीव व पुद्गल स्वयं रुक जाते हैं। तब जिस द्रव्य पर उनके चलने में अनुकूल होने का आरोप आता है उसे धर्म द्रव्य कहते हैं और जिस द्रव्य पर उनके रुकने में अनुकूल होने का आरोप आता है उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं। प्रवेश : यदि बात सिर्फ आरोप की ही है तो धर्म द्रव्य पर ही जीव और पुद्गल के चलने में अनुकूल होने का आरोप क्यों आता है ? किसी और द्रव्य पर क्यों नहीं? समकित : इसके बारे में चर्चा हम बाकी रह गये आकाश और काल द्रव्य की चर्चा के बाद करेंगे। सुनो जब सभी द्रव्य स्वयं अपनी योग्यता से इस विश्व में रहते हैं तो उनके रहने में अनुकूल होने का आरोप जिस द्रव्य पर आता है उसे आकाश द्रव्य कहते हैं। एवं जब सभी द्रव्यों की पर्याय अपनी (द्रव्यत्व शक्ति की) योग्यता से प्रति समय बदलती है तो उसके इस बदलाव (परिणमन) में अनुकूल होने का आरोप जिस द्रव्य पर आता है उसे काल द्रव्य कहते हैं। प्रवेश : आपने बताया था इस विश्व (लोक) में अनंत जीव द्रव्य व अनंतानंत 1.force 2.reverse-direction 3.actually 4.motion 5.stoppage 6.blame