________________ 128 समकित-प्रवेश, भाग-5 हमारे इस कार्य के उपादन कारण नहीं हैं। लेकिन उन पर हमारे इस कार्य में अनुकूल होने का आरोप आता है और आरोप भी इसलिये आता है क्योंकि उनका स्वयं का परिणमन' भी इसीप्रकार का (सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्ररुप)है। कुदेव-कुशास्त्र-कुगुरु का परिणमन ऐसा नहीं है कि उन पर हमारे कार्य में अनुकूल होने का आरोप आ सके बल्कि उनका परिणमन तो कुछ ऐसा है कि उनके ऊपर हमारे इस कार्य में प्रतिकूल होने का आरोप आता है। इसलिये निश्चय सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति में सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का श्रद्धान, सत्शास्त्रों का स्वाध्याय और यथायोग्य बाह्य-आचरण आदि के शुभ राग को निमित्त-कारण (सहचर) जानकर व्यवहार से सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र कहने में आता है। यानि कि व्यवहार-नय कारण (निमित्त) को ही कार्य कह देता है। लेकिन ध्यान रहे निश्चय सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट होने से पहले वह शुभ-राग होता जरूर है लेकिन व्यवहार से भी सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र नाम नहीं पाता। यह नाम वह निश्चय सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट होने पर ही पाता है। क्योंकि कार्य होने पर ही अन्य पदार्थ पर कारण होने का आरोप आ सकता है। जैसे प्लास्टिक की डिब्बी तो हर हाल में प्लास्टिक की डिब्बी ही है लेकिन केसर की संगति होने पर वह प्लास्टिक की डिब्बी भी केसर की डिब्बी कहलाने लगती है। लेकिन केसर की संगति के बिना वह प्लास्टिक की डिब्बी केसर की डब्बी नहीं कहलाई जा सकती। प्रवेश : भाईश्री ! यह तो सहचर व्यवहार की बात है लेकिन पूर्वचर व्यवहार तो निश्चय धर्म प्रगट होने से पहले ही होता है ? समकित : निश्चय धर्म प्रगट होने से पहले उस जाति का पर्वचर शभ-राग होता है लेकिन वह पूर्वचर शुभ-राग, पूर्वचर-व्यवहार धर्म नाम तो वास्तव में निश्चय धर्म प्रगट होने के बाद ही पाता है। हमेंशा ध्यान रखना नय निरपेक्ष नहीं होते। प्रवेश : यह तो बहुत अच्छे से समझ में आ गया। क्या उपादान-कारण की तरह निमित्त-कारण के भी अनेक भेद होते हैं ? 1.transformation 2.plastic 3.saffron 4.parallel 5.previous 6.irrespective 7.types