________________ 102 समकित-प्रवेश, भाग-5 4. इन्हीं तीन कारणों से, जीव में सुखी (निराकुल) हो सके ऐसा सुख नाम का गुण होने के बावजूद भी इस गुण की अशुद्ध-पर्याय' प्रगट हो रही है और इस गुण की अशुद्ध पर्याय का नाम है-दुःख (आकुलता) और दुःख का ही दूसरा नाम है- संसार। प्रवेश : भाईश्री ! इसका निष्कर्ष बताईये न। समकित : इस चर्चा से हम निम्न निष्कर्ष पर पहुँचते हैं: 1. जब तक जीव के ज्ञान, श्रद्धा, चारित्र इन तीन गुणों की अशुद्ध पर्याय प्रगट होती रहेंगी तब तक चौथे सुख गुण की भी अशुद्ध पर्याय अर्थात दुःख ही प्रगट होगा। 2. दुःख का कारण कोई और नहीं, हमारे ही मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और मिथ्याचारित्र अर्थात हमारा ही मिथ्या-पुरुषार्थ है। 3. जब दुःख का कारण कोई और नहीं तो दूसरों को दोष देना व्यर्थ है। 4. यदि दुःख का कारण हमारे अंदर ही है यानि कि हमारा ही मिथ्या पुरुषार्थ है तो सुख का कारण भी हमारे अंदर ही होगा यानि कि हमारा ही सम्यक-पुरुषार्थ होगा। 5. यदि सुख का कारण हमारे अंदर ही है, तो फिर दूसरों की कृपा से ___ हम सुखी हो जायेंगे इस प्रकार दूसरों के भरोसे रहना ठीक नहीं है। 5. छह द्रव्यों के समूह का नाम विश्व/लोक है। जीव की दुःख रूप अशुद्ध-पर्यायों का नाम संसार है। 6. दुःख का मूल कारण हैं- मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र। इसलिये यह तीन मिलकर संसार का मार्ग है। प्रवेश : तो क्या कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु का सेवन आदि मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र नहीं है ? 1.impure states 2.conclusion 3.false-efforts 4.meaningless 5.true-efforts 6.compassion 7.birth-cycle 8.path