________________ -- --- अभावः ] [119 / (110] [ तर्कसंग्रहः [प्रागभावादीनां कानि लक्षणानि ? ] अनादिः सान्तः प्रागभावः / उत्पत्तेः पूर्व कार्यस्य / सादिरनन्तः प्रध्वंसः / उत्पत्त्यनन्तरं कार्यस्य / त्रैकालिकसंसर्गावच्छिन्नप्रतियोगिताकोऽत्यन्ताभावः। यथा भूतले घटो नास्तीति / तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकोऽन्योन्याभावः। यथा घटः पटो नेति / अनुवाद--[प्रागभावादि के क्या लक्षण हैं ? ] जिसकी उत्पत्ति / तो न हो (अनादि) परन्तु नष्ट होता हो (सान्त) बह प्रागभाव है। जैसे--उत्पत्ति से पहले कार्य का प्रागभाव है। जो उत्पन्न तो होता हो (सादि ) परन्तु नष्ट न होता हो (अनन्त ) वह प्रध्वंसाभाव है। जैसे-उत्पत्ति के बाद कार्य का प्रध्वंसाभाव होता है। जिस अभाव की प्रतियोगिता संसर्ग से अवच्छिन्न (युक्त) है और जो तीनों कालों में रहे वह अत्यन्ताभाव है। जैसे-पृथिवी पर घड़ा नहीं है। जिसकी प्रतियोगिता तादात्म्य सम्बन्ध से अवच्छिन्न हो वह अन्योन्याभाव है। जैसे-घट पट नहीं है। व्याख्या-अभाव का विचार पृष्ठ 13 से 16 पर किया जा चुका है। यहाँ उसी का स्पष्टीकरण किया जा रहा है। अभाव प्रथमतः दो प्रकार का है--संसर्गाभाव और अन्योन्याभाव / संसर्गाभाव तीन प्रकार का है-प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव और अत्यन्ताभाव / अन्योन्याभाव एक ही प्रकार का है। 'संसर्ग' शब्द का अर्थ है 'बृत्तिनियामक संयोग, समवाय आदि सम्बन्ध' / तादात्म्य सम्बन्ध भी सम्बन्ध है परन्तु वह वृत्तिनियामक सम्बन्ध नहीं है। किसी वस्तु / (आधेय) का किसी दूसरी वस्तु (आधार) में रहना आधेयता है और . वही वृत्ति है अर्थात् वृत्तिनियामक सन्बन्ध उन वस्तुओं में होता है जिसमें एक वस्तु दूसरी वस्तु में संयोग, समवाय आदि में से किसी सम्बन्ध से रहती है। जैसे--कपाल (अवयव) में घट ( अवयवी) समवायसम्बन्ध से रहता है, भूतल पर घट संयोग सम्बन्ध से रहता है। ये सम्बन्ध वृत्तिनियामक सम्बन्ध हैं। अतः जब यह कहा जाता है कि भूतल में घटाभाव है तो इसका अर्थ है 'भूतल में घट का संयोग नहीं है' / न्याय की भाषा में इसे कहेंगे-'संयोगसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकोऽभावः' अर्थात् संयोग सम्बन्ध से प्रतियोगी (घट ) के भूतल में रहने का अभाव है / कपाल में घट के अभाव को कहेंगे 'समवायसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकोऽभावः'। इस तरह जहाँ संयोगादिसम्बन्धघटितप्रतियोगिता का अभाव बतलाया जाता है वहाँ संमर्गाभाव होता है। जहाँ इससे भिन्न सम्बन्ध अर्थात् तादात्म्य सम्बन्ध से प्रतियोगिता का अभाव बतलाया जाता है वहाँ अन्योन्याभाव होता है। तादात्म्य सम्बन्ध से वस्तु अपने में ही रहती है किसी अन्यवस्तु में नहीं। जैसे घट तादात्म्य सम्बन्ध से घट में ही रहता है। अतः इस अभाव में प्रतियोगिता तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्ना होती है। जैसे-'घट पट नहीं है। इसका अर्थ है घट के साथ पट का तादात्म्यसम्बन्ध नहीं है (घट का तादात्म्य पट में नहीं है, घट में ही है)। अत: इसमें 'तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकोऽभावः' होता है। अर्थात् घट को छोड़कर अन्यत्र पट आदि सभी में घट का तादात्म्पसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताकाभाव रहेगा। इस तरह तीनों प्रकार के संसर्गाभावों में प्रतियोगिता संयोग, समवाय आदि सम्बन्धों से अवच्छिन्न ( विशिष्ट) रहती है और अन्योन्याभाव में प्रतियोगिता तादात्म्यसम्बन्धावच्छिना होती है। जैसे 'भूतले घटो नास्ति' यहाँ संसर्गाभाव ( अत्यन्ताभाव) है क्योंकि यहाँ संयोगसम्बन्धावच्छिन्नभूतलनिष्ठघटाभाव बतलाया गया है। 'भूतलं घटो न' यहाँ अन्योन्याभाव है क्योंकि यहाँ तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव है। अत: जब भी अभाव का विचार किया जाता है तो वह किसी न किसी सम्बन्ध से बतलाया जाता है।