________________ 94 ] [ तर्कसंग्रहः हेत्वाभासाः] [95 आश्रयासिब है ? ] के की अनुवाद-[ असिद्ध कितने प्रकार का है ? ] असिद्ध तीन प्रकार का है आश्रयासिद्ध, स्वरूपासिद्ध और व्याप्यत्वासिद्ध। [आश्रयासिद्ध का क्या लक्षणा है? ] आश्रयासिद्ध, जैसे-'आकाश कमल सुगन्धित है कमल होने से सरोवर के कमल के समान / ' यहाँ आकाश-कमल आश्रय (पक्ष ) है और वह है ही नहीं। [ स्वरूपासिद्ध का क्या लक्षण है ? ] स्वरूपासिद्ध, जैसे-'शब्द गुण है, चाक्षुष होने के कारण।' यहाँ शब्द में चाक्षुषत्व नहीं है क्योंकि शब्द कानों से ग्राह्य है। [व्याप्यत्वासिद्ध क्या है और उपाधि का क्या स्वरूप है? ] उपाधि से युक्त हेतु को व्याप्यत्वासिद्ध कहते हैं। जो साध्य का व्यापक होकर साधन / हेतु) का अव्यापक हो वह उपाधि है। साध्यब्यापकत्व का अर्थ है 'साध्य के अधिकरण में रहने वाले अत्यन्ताभाव का जो प्रतियोगी न हो। साधनाव्यापकत्व का अर्थ है 'जो हेतु के अधिकरण में रहने वाले अत्यन्ताभाव का प्रतियोगी हो।' जैसे-'पर्वत धूम वाला है, आगवाला होने से' यहाँ 'आर्द्र (गीला)-इन्धनसंयोग' उपाधि है। जैसे ....'जहाँ धूम है वहाँ आईन्धनसंयोग है' यह साध्यव्यापकत्व है। 'जहाँ आग है वहाँ आन्धनसंयोग नहीं है क्योंकि (अयोगोलक आग से लाल हुए गर्म लोहे) में आईन्धनसंयोग का अभाव है' यह साधन-अव्यापकत्व है। इस प्रकार साध्यव्यापक होकर साधन-अव्यापक होने से 'आर्टेन्धनसंयोग' उपाधि है। सोपाधिक होने से 'वह्निमत्त्व' व्याप्यत्वासिद्ध है। (1) आश्रयासिद्ध-पक्षतावच्छेदकविशिष्टपक्षाप्रसिद्धिः' या पक्षतावच्छेदकाऽभाववत्पक्षकत्वम्' अर्थात् पक्षतावच्छेदक-पक्षत्व से विशिष्ट पक्ष का अप्रसिद्ध होना या पक्षतावच्छेक-पक्षत्व के अभाव वाला पक्ष है जिस हेतु का वह आश्रयासिद्ध है। अतः पक्ष में पक्षतावच्छेदक धर्म का न रहना आश्रयासिद्ध है, जैसे-'गगनाविन्दं सुरभि, अरविन्दत्वात्' (आकाश कमल सुगन्धित है क्योंकि कमल है, यहाँ पक्ष है 'गगनारविन्द' तथा पक्षतावच्छेदक है 'गगनीयत्व'। यह गगनीयत्व' अरविन्द में नहीं है क्योंकि आकाश में कमल नहीं खिलता है। इस तरह पक्ष ( आधय) के असिद्ध होने से अथवा पक्ष में पक्षतावच्छेदक धर्म गगनीयत्व का अभाव होने से 'अरविन्दत्व हेतु आश्रयासिद्ध है। इस उदाहरण में अरविन्द और गगन दोनों पृथक्-पृथक् तो प्रसिद्ध हैं, परन्तु गगनीयत्व से विशिष्ट अरविन्द प्रसिद्ध नहीं है। (2) स्वरूपासिद्ध-पक्ष में हेतु का न रहना ही स्वरूपासिद्ध है 'पक्षे हेत्वभावः / जैसे-'शब्दो गुणश्चाक्षुषत्वात्' / शब्द गुण है क्योंकि चाक्षुष है)। यहाँ चाक्षुषत्व स्वरूपासिद्ध हेतु है क्योंकि शब्द कान से सुना जाता है, न कि आँख से देखा जाता है। इस तरह चाक्षुषत्व हेतु पक्ष शब्द में नहीं रहता है अर्थात् हेतु में पक्षधर्मता नहीं है। आश्रयासिद्ध में पक्ष ही असिद्ध रहता है जबकि स्वरूपासिद्ध में पक्ष द्धि नहीं होता अपितु पक्ष में हेतु का सद्भाव असिद्ध होता है। अतः दोनों में अन्तर है। स्वरूपासिद्ध के चार भेद किए जाते हैं, जैसे-(१) शुद्धाऽसिद्ध (जैसे-शब्दो गुणः चाक्षुषत्वात् ), (2) भागाऽसिद्ध (पक्ष के एक देश में न रहना, जैसे-'उद्भूतरूपादिचतुष्टयं गुणः, रूपत्वात् ), (3) विशेषणाऽसिद्ध (वायुः प्रत्यक्षः, रूपवत्वे सति स्पर्शवत्त्वात् ) और (4) विशेष्यासिद्ध ( वायुः प्रत्यक्षः, स्पर्शवत्वे सति रूपवत्वात् ) / (3) व्याप्यत्वासिद्ध-उपाधियुक्त हेतु को व्याप्यत्वासिद्ध कहते हैं 'सोपाधिको हेतुः' / जैसे-'पर्वतो धूमवान् वह्निमत्वात्' पर्वत धूम व्याख्या-असिद्ध को 'साध्यसम' भी कहा जाता है क्योंकि यहाँ हेतु साध्य के समान संदिग्ध होता है। असिद्ध का सामान्य अर्थ है 'साध्यव्याप्य हेतू का पक्ष में न रहना' / इसका लक्षण मूल में नहीं दिया है। टीका में इसका लक्षण दिया गया है 'आश्रयासिद्धाद्यन्यतमत्वम्' (आश्रयासिद्ध आदि तीन में से कोई एक)। असिद्ध के तीन भेद हैं-आश्रयासिद्ध (पक्ष में दोष), स्वरूपासिद्ध (हेतु में दोष ) और व्याप्यत्वासिद्ध (व्याप्ति में दोष)।