________________ हेत्वाभासाः ] [ 92 __ +92] [ तर्कसंग्रहः में दूसरे हेतु से साध्याभाव ज्ञात होता है जबकि विरुद्ध में प्रथम हेतु से ही साध्याभाव ज्ञात हो जाता है। [सत्प्रतिपक्षस्य किं लक्षणम् ? ] यस्य साध्याभावसाधकं हेत्वन्तरं विद्यते स सत्प्रतिपक्षः / यथा-शब्दो नित्यः श्रावणत्वाच्छब्दत्ववत् / शब्दोऽनित्यः कार्यत्वाद्धटवत् / अनुवाद-[ सत्प्रतिपक्ष का क्या लक्षण है ? ] जिसके साध्या'भाव का साधक दूसरा हेतु विद्यमान हो वह सत्प्रतिपक्ष है। जैसे*शब्द नित्य है श्रावणत्व होने के कारण, शब्दत्व के समान। साध्याभाव का साधक हेत्वन्तर होगा शब्द अनित्य है कार्य होने " / -के कारण, घट के समान / व्याख्या-वस्य साध्याभावसाधकं हेत्वन्तरं विद्यते स सत्प्रति• पक्षः' जिस हेतू के साध्य के अभाव को सिद्ध करने वाला दुसरा हेतू हो वह सत्प्रतिपक्ष है। इसमें एक हेतु साध्य की सिद्धि करता है तो .. दुसरा साध्यभाव की। दोनों हेतु एक समान बल वाले होते हैं जिससे ‘निर्णय नहीं हो पाता है, इसीलिए दोनों ही सत्प्रतिपक्ष हेतु कहे जाते हैं। इसे गौतम ने प्रकरणसम (निर्णय समान ) कहा है। सत्प्रतिपक्ष 'शब्द का भी अर्थ है जिसका प्रतिपक्षी ( विरोधी) मौजूद हो। जैसे---'शब्दो नित्यः श्रावणत्वाच्छब्दत्ववत्' (शब्द नित्य है क्योंकि उसमें श्रावणत्व है, जैसे शब्दत्व ) / यहाँ इसका तुल्य बलवान हेतु है / 'शब्दोऽनित्यः कार्यत्वाद्धटवत्' (शब्द अनित्य है, क्योंकि उसमें कार्यत्व / / है, जैसे घट)। सत्प्रतिपक्ष शब्द दोषवाची भी है और दुष्टवाची भी। जैसे-'सन् प्रतिपक्षः सत्प्रतिपक्षः' यह विग्रह दोषवाची है * तथा 'सन् प्रतिपक्षो यस्य स सत्प्रतिपक्षः' यह विग्रह दुष्टवाची है। अन्तर-(१) विरुद्ध में जो हेतु साध्य के साधक के रूप में "प्रस्तुत किया जाता है वही साध्याभाव को सिद्ध करता है जबकि सत्प्रतिपक्ष में दूसरा हेतु साध्याभाव का साधक होता है। (2) बाधित में बलवत्तर प्रमाण (प्रत्यक्ष और श्रुति प्रमाण बलवत्तर हैं) से साध्याभाव सिद्ध किया जाता है जबकि सत्प्रतिपक्ष में समान' बल वाले ( अनुमानान्तर) से साध्याभाव सिद्ध किया जाता है। बाधित में निर्णय होता है सत्प्रतिपक्ष में नहीं होता है / जैसे कोई कहे.' 'आग शीतल है' यहाँ प्रत्यक्ष बाधा से अग्नि में शीतलाभाव की सिद्धि हो रही है। [असिद्धः कतिविधः 1] असिद्धविविधः-आश्रयासिद्धःस्वरूपासिद्धः व्याप्यत्वासिद्धश्चेति / [आश्रयासिद्धस्य किं. लक्षणम् ?] आश्रयासिद्धो यथा--गगनारविन्दं सुरभि, अरविन्दत्वात् सरोजारविन्दवत् / अत्र गगनारविन्दमाश्रयः स च नास्त्येव / [स्वरूपासिद्धस्य किंरूपम् 1] स्वरूपासिद्धो यथाशाब्दो गुणश्चाक्षुषत्वात् / अत्र चाक्षुषत्वं शब्दे नास्ति शब्दस्य: श्रावणत्वात् / [व्याप्यत्वासिद्धः कः किञ्चोपाधिस्वरूपम् ?] सोपाधिको हेतुर्व्याप्यत्वाऽसिद्धः। साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वमुपाधित्वम् / साध्यसमानाधिकरणाऽत्यन्ताऽ-- भावाऽप्रतियोगित्वं साध्यव्यापकत्वम् / साधनवनिष्ठाऽत्यन्ताऽ--- भावप्रतियोगित्वं साधनाध्यापकत्वम् / यथा पर्वतो धूमवान् वतिमत्त्वादित्यत्राऽऽट्टैन्धनसंयोग उपाधिः। तथाहि-यत्र धूमस्तत्राऽऽनेन्धनसंयोग इति साध्यव्यापकत्वम् / यत्र वह्निस्तत्राऽऽर्दैन्धनसंयोगो नास्ति, अयोगोलके आईन्धनसंयोगाउभावादिति साधनाऽव्यापकत्वम् / एवं साध्यव्यापकत्वे सति' साधनाऽव्यापकत्वादाडैन्धनसंयोग उपाधिः। सोपाधिकत्वा-- द्वामित्वं व्याप्यत्वाऽसिद्धम् /