________________ सन्निकर्षभेदा:] (नाम, जाति आदि से रहित और कल्पना से रहित ज्ञान प्रत्यक्ष है)। गौतम मुनि ने प्रत्यक्ष की परिभाषा में कहा है 'अव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकम्'। यहाँ अव्यभिचारी ( दोषरहित) के प्रयोग से अप्रमा का निराकरण किया गया है। अव्यपदेश्य (जिसका नामादि से कथन न किया जा सके) तथा व्यवसायात्मक (विशिष्टावगाही) पदों के द्वारा क्रमशः निर्विकल्पक और सविकल्पक प्रत्यक्षों का संग्रह किया गया है। [ तर्कसंग्रहः घटादि विषय हैं, अतएव उनमें विषयता रहती है। वह विषयता तीन प्रकार की होती है-विशेष्यता, प्रकारता और संसर्गता। जैसे -'ब्राह्मणोऽयम्'। यह ब्राह्मण है) ऐसा प्रत्यक्ष होने पर 'अयम्' पद में विशेणता, ब्राह्मण पद में प्रकारता (विशेष्यता) तथा उन दोनों पदों के संबन्ध में संसर्गता रहती है। अथवा ब्राह्मण विशेष्य है और ब्राह्मणत्व प्रकार है और उनका सम्बन्ध संसर्ग है / इस तरह यह ज्ञान सप्रकारक ज्ञान / विशेषण-विशेष्यसम्बन्धावगाही ज्ञान) होने से सविकल्पक है और जो ज्ञान 'विशेषणविशेष्यसम्बन्ध।ऽनवगाही' है वह निर्विकल्पक है / जैसे—यह कुछ है। इस तरह हम देखते हैं कि जब कोई पदार्थ हमारे कुछ निकट आता है तो उससे हमारी इन्द्रियों का सन्निकर्ष सम्बन्ध होता है, पश्चात् हमें एक धुधला सा ज्ञान होता है कि 'यह कुछ है। यहां निर्विकल्पक है। पश्चात् विषय जब और निकट आता है तो उसके विशेष्य, विशेषण और उसके सम्बन्ध का ज्ञान होता है (अनुभूत विषय में ज्ञान शीघ्रता से होता है, अतः वहाँ क्रम का पता नहीं चलता है। इसके होने पर ही एक ज्ञान का दूसरे ज्ञान से भेद किया जा सकता है। जैसे--'अयं घट:' इस ज्ञान में घट विशेष्य है और उसमें घटत्व जाति प्रकार है जो उसे पटादि के ज्ञान से पृथक करती है। इस तरह यह विशिष्टज्ञान कहलाता है, अतः सविकल्पक को विशिष्टज्ञान कहते हैं। इस विशिष्टज्ञान के होने के ही कारण इससे पूर्ववर्ती ज्ञान को निर्विकल्पक कहते हैं। अतः दीपिका में 'विशेषणविशेष्यसम्बन्धानबगाहिज्ञानम्' को निर्विकल्पक तथा 'नामजात्यादिविशेषणविशेष्यसम्बन्धावगाहिज्ञानम्' को सविकल्पक कहा है। यह निश्चित है कि विशेषणज्ञान के बिना विशेष्य को नहीं जान , जा सकता है। अतः कहा है—'नागृहीतविशेषणा-बुद्धिविशेष्यमुपसंक्रामति' / बौद्ध निर्विकल्पक को ही प्रत्यक्षज्ञान मानते हैं अतः उनके यहाँ प्रत्यक्षज्ञान की परिभाषा है "प्रत्यक्ष कल्पनापोढं नामजात्याद्यसंयुतम्' / सन्निकर्षः कतिविधः?] प्रत्यक्षज्ञानहेतुरिन्द्रयार्थसन्निकर्षः पड़ वधः-संयोगः संयुक्तसमवायः संयुक्तसमवेतसमवायः समवेतसमवायो विशेषणविशेष्यभावश्चेति / [घटद्रव्यप्रत्यक्षे कः सन्निकर्षः 1 ] चक्षुषा घटप्रत्यक्षजनने संयोगः सन्निकर्षः / [घटरूपगुणप्रत्यक्षे कः सन्निकर्षः१] घटरूपप्रत्यक्षजनने संयुक्तसमवायः सन्निकर्षः, चक्षुःसंयुक्ते घटे रूपस्य समवायात् / [रूपत्वप्रत्यक्षे कः सन्निकर्पः 1 ] रूपत्वसामान्यप्रत्यक्षे संयुक्तसमवेतसमवायः सन्निकर्षः, चक्षुःसंयुक्ते घटे रूपं समवेतं तत्र रूपत्वस्य समवायात् / [शब्दप्रत्यक्षे कः सन्निकर्षः 1] श्रोत्रेण शब्दसाक्षात्कारे समवायः सन्निकर्षः। कर्णविवरवाकाशस्य श्रोत्रत्वाच्छब्दस्याकाशगुणत्वाद् गुणगुणिनोश्च समवायात् / [शब्दत्वसाक्षात्कारे कः सन्निकर्षः 1] शब्दत्वसाक्षात्कारे समवेतसमवायः सन्निकर्षः। श्रोत्रसमवेते शब्दे शब्दत्वस्य समवायात् / [अभावप्रत्यक्षे कः सन्निकर्षः 1 ] अभावप्रत्यक्षे विशेषणविशेष्यभावः सन्निकर्षः। घटाभाववद् भूतलमित्यत्र चक्षुःसंयुक्ते भूतले घटाभावस्य विशेषणत्वात् /