________________ 44 ] [ तर्कसंग्रहः बुद्धेः लक्षणम् ] वर्णात्मकश्च / तत्र ध्वन्यात्मको भेर्यादौ / वर्णात्मकः संस्कृत- अनुवाद-[१६. बुद्धि का क्या लक्षण है और वह कितने प्रकार की है?] सब प्रकार के व्यवहार में जो गुण कारण है वही बुद्धि. भाषादिरूपः। है और बुद्धि ही ज्ञान है। वह बुद्धि दो प्रकार की है-स्मृति और अनुवाद--[१५. शब्द का क्या लक्षण है और वह कितने प्रकार / अनुभव / संस्कार मात्र से उत्पन्न होने वाला ज्ञान स्मृति है तथा का है? ] श्रोत्र (कान) इन्द्रिय से जिस गुण का प्रत्यक्ष होता है स्मृति से भिन्न शान अनुभव है। उसे शब्द कहते हैं / शब्द केवल आकाश में रहता है। वह शब्द दो / प्रकार का है--ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक / भेरी आदि में (नगाड़ा | व्याख्या-यहाँ बुद्धि शब्द का प्रयोग ज्ञान के अर्थ में किया गया आटि जाने से जो Baa जयब होता है वह ध्वन्यात्मक शब्द है। है। शान का साधन अणुपरिमाण मन को माना गया है। ज्ञान आत्मा का विशेष गुण है। सांख्य और वेदान्त दर्शन में बुद्धि को [ कण्ठादि से उत्पन्न ] संस्कृत भाषादिरूप जो शब्द (क, ख आदि) हैं वे वर्णात्मक हैं। महत् तत्व के अन्तर्गत माना है तथा अहंकार, अन्तःकरण आदि रूपों व्याख्या-'श्रोत्रग्राह्यत्वे सति गुणत्वं शब्दत्वम्' यह शब्द गूण का * में उसे विभक्त किया गया है। न्यायदर्शन में बुद्धि की 'आत्माश्रयलक्षण है। शब्द के अन्य तीन भेद भी किए जाते हैं-(१).संयोगज प्रकाश' आदि कई परिभाषायें मिलती हैं। दीपिका की परिभाषा (नगाडा और दण्ड के संयोग से उत्पन्न शब्द), (2) विभागज है-'जानामीत्यनुव्यवसायगम्यज्ञानत्वम्' अर्थात् 'मैं जानता हूँ' इस (लकड़ी बगैरह के तोड़ने से उत्पन्न शब्द) और (3) शब्दज प्रकार का अनुव्यवसायगम्य ज्ञान ही बुद्धि है। न्यायदर्शन के अनुसार (प्रथमोत्पन्न शब्द से क्रमशः उत्पन्न होने वाले द्वितीय-तृतीयादि सबसे पहले इद्रियार्थ-सन्निकर्ष होता है, फिर निर्विकल्पक ज्ञान शब्द)। शब्दज शब्द का मानना आवश्यक है क्योंकि हम दरवर्ती अनन्तर विशिष्ट बुद्धि, पश्चात् मानस प्रत्यक्ष / यह मानस प्रत्यक्ष ही शब्दों को सुन लेते हैं। शब्दज शब्द कैसे हमारी श्रोत्रेन्द्रिय तक आते अनुव्यवसाय कहलाता है। जैसे-'घटमहं जानामि' (मैं घड़े को हैं इस सम्बन्ध में दो मत हैं-(१) वीचीतरंगन्याय का सिद्धान्त- जानता हूँ) या "घटज्ञानवानहमस्मि' (मैं घट ज्ञान वाला हूँ) यह जल की तरंगों की तरह शब्द सीधी रेखा में द्वितीयादि शब्दों को / घटज्ञान विषयक मानस प्रत्यक्ष अनुव्यवसाय है। 'अयं घट:' ( यह क्रमशः उत्पन्न करता हुआ कान तक पहुँचता है। (2) कदम्ब- घड़ा है) यह घटत्व-विशेषण-युक्त घटज्ञान व्यवसायात्मक ज्ञान गोलकन्याय का सिद्धान्त - जैसे कदम्ब के फूल की पंखुड़ियां चारों है। 'घट घटत्वे' (घट और घटत्व) यह निर्विकल्पक ज्ञान है। ओर फैलती हैं उसी प्रकार शब्द भी चारों ओर द्वितीयादि शब्दों : अनुव्यवसाय ज्ञान के विषय पूर्ववर्ती व्यवसायात्मक ज्ञान तथा तद्गत को उत्पन्न करता हुआ आगे बढ़ता है। न्यायदर्शन के अनुसार कान "ज्ञानत्व ये दोनों होते हैं। सांख्य तथा वेदान्त दर्शन में 'अयं घट:' को कर्णशकुल्यवच्छिन्न आकाश ही है। नैयायिकों के अनुसार शब्द अनुव्यवसाय का गम्य ज्ञान (विषय) नहीं माना गया है अपितु उत्पन्न होने के कारण अनित्य है। अनुव्यवसाय को ही ज्ञान मानते हैं। [16. बुद्धेः किं लक्षणं, कतिविधा च सा ? ] सर्वव्यव ज्ञान प्रथमतः दो प्रकार का है-स्मृत्यात्मक और अनुभवात्मक / हारहेतुर्गुणो बुद्धिर्ज्ञानम् / सा द्विविधा स्मृतिरनुभवश्च / भावना नामक संस्कारमात्रजन्य ज्ञान स्मृति है। स्मृति के इस लक्षण में 'मात्र' पद प्रत्यभिज्ञा के वारणार्थ दिया जाए अथवा नहीं इस संस्कार-मात्रजन्यं ज्ञानं स्मृतिः / तद्भिन्न ज्ञानमनुभवः / विषय में व्याख्याकारों का मतभेद है। तर्कसंग्रह की कुछ प्रतियों में.