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________________ सिद्ध-सारस्वत यशस्वी विद्वान् एवं शिक्षाविद् 'प्रश्नोत्तरमाला' में किसी जिज्ञासु के द्वारा पूछे गये दो प्रश्नों - (1) 'मातेव का' या 'सुखदा का'? तथा (2) ॐ किमेधते दानवशात् ? के उत्तर एक ही शब्द में दिए गये- 'सुविधा'। यह सत्य है कि विद्या मनुष्य के लिए एक अविनाशी निधि है। उसके सामने धन-सम्पत्ति का कोई मूल्य नहीं है। माता के समान सुख देने वाली तथा दानों देते रहने पर भी सदा-सदा बढ़ती रहने वाली सुविधा' एक दुर्लभ वस्तु है। विद्या-विमुख व्यक्ति को आदर का पात्र नहीं माना जाता। इसलिए कहा गया है - 'ज्ञानं नरा भव्यतमा वहन्ति' अर्थात् भव्यतम पुरुष ही ज्ञान को धारण कर पाते हैं, अहित से बचने के लिए विद्या को संजीवनी कहा गया है। आज से सौ-सवा सौ वर्ष पूर्व समाज में विद्वानों का अभाव था। गाँव या शहर में यदि कोई बालक मिडिल कक्षा की परीक्षा पास करके आ जाता तो सभी लोग उसकी प्रशंसा करते, सर्व श्री गणेशप्रसाद वर्णी, पण्डित गोपालदास वरैया, महात्मा भगवानदीन आदि ने जब धर्म-समन्वित उच्च लौकिक शिक्षा का महत्त्व बताया, तब हमारे उस समय के पूर्वजों के मन में अपने बाल-गोपालों को पढ़ाने की लगन लगी। मोरेना, वाराणसी, हस्तिनापुर आदि में स्थापित विद्यालयों से पढ़कर अनेक विद्वान् बनने लगे। आज जो घर-घर में धर्म-चर्चा सुनाई देती है, इसका श्रेय इन्हीं विद्यालयों को जाता है। डॉ. सुदर्शनलाल जैन का व्यक्तित्व स्वनिर्मित है, उनकी माँ तो उन्हें जन्म देकर दसवें माह ही स्वर्ग सिधार गईं थी। पूज्य पिताश्री प्रायमरी स्कूल में शिक्षक थे। उनकी इच्छा थी कि बालक सुदर्शनलाल भी कम से कम इतना तो पढ़ ही ले कि वह प्रायमरी स्कूल में शिक्षक बनकर आजीविका चला सके, किन्तु सुदर्शनलाल के प्रारब्ध में तो उच्च कोटि का प्राध्यापक बनना लिखा था, पूर्व जन्म के संस्कार और इस जन्म के प्रबल पुरुषार्थ से आज जैन-जगत के वरिष्ठतम विद्वानों में उनकी गणना की जाती है। डॉ. सुदर्शनलाल जैन अनेक कृतियों के लेखक और सम्पादक हैं। 44 शोधार्थी उनके कुशल निर्देशन में डाक्टरेट की डिग्रियाँ प्राप्त कर विद्वत्परम्परा की श्री-वृद्धि कर रहे हैं। डॉक्टर साहब ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रवक्ता, रीडर और प्रोफेसर के रूप में 38 वर्षों की सुदीर्घ सेवाओं के बाद 30 जून 2006 को सम्मानपूर्वक अवकाश प्राप्त किया है। उनके सुपुत्र, पुत्रवधु, पुत्री और दामाद भी उच्च शिक्षा प्राप्त हैं। कुछ देश में और कुछ विदेश में सेवारत हैं। एक सुशिक्षित, सुसंस्कृत एवं सुरुचिसम्पन्न परिवार का मुखिया होना उनके पुष्य का सूचक है। अनेक पदवियाँ, उपाधियाँ और पुरस्कार उनके कण्ठहार बनकर गले की शोभा बढ़ाते रहे हैं। आज इस बढ़ती उम्र में भी अनेक सामाजिक, धार्मिक एवं शैक्षिक संस्थाओं से सम्बद्ध रहते हुए वह 'यः क्रियावान् सः पण्डितः' की उक्ति को सार्थक कर रहे हैं। युगनायक परमपूज्य आचार्य प्रवर श्री विद्यासागर जी महाराज द्वारा रचित यह दोहा उनके बारे में बड़ा ही सटीक है - कल्पवृक्ष से अर्थ क्या, कामधेनु भी व्यर्थ है। चिन्तामणि को भूल जा, सन्मति मिले समर्थ।। सन्मति प्रदायिका विद्या-निधि जिसे प्राप्त है, उसके लिए कल्पवृक्ष, कामधेनु और चिन्तामणि की कोई आवश्यकता नहीं है। राष्ट्रपति-सम्मान से अलंकृत विद्वद्वरेण्य डॉ. सुदर्शनलाल जैन के अमृत महोत्सव वर्ष में अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित कर उनके कराम्बुजों में समर्पित करने का संकल्प सराहनीय है। इसके लिये वीतराग वाणी ट्रस्ट तथा ग्रन्थ के यशस्वी प्रधान सम्पादक प्रतिष्ठाचार्य पण्डित विमल कुमार जैन सोरया की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है। सिद्धसारस्वत डॉ. साहब के स्वस्थ, सुखी एवं सुदीर्घ जीवन के लिए हमारी शतश: मङ्गल कामनाएँ। प्राचार्य नरेन्द्र प्रकाश जैन पूर्व अध्यक्ष अ.भा.दि. जैन शास्त्री परिषद्, फिरोजाबाद
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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