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________________ सिद्ध-सारस्वत वरिष्ठ विद्वानों के गुरु प्रो. जैन की प्राकृत-दीपिका मेरा आदर्श आदरणीय अंकल जी (प्रो. सुदर्शन लाल जैन) को मैं बचपन से जानता हूँ। बाल्यकाल से ही उनका स्नेह मुझे प्राप्त हुआ है। जब अपने पिताजी (प्रो. डा. फूलचंद जैन प्रेमी) के साथ काशी हिन्दू विश्वविद्यालय स्थित उनके आवास पर जाता था तब इनका छोटा बेटा अभिषेक भी हमारे साथ खेला करता था। मुझे उन दिनों आपकी विद्वत्ता का भान भी नहीं था। किंतु जब मैं भी धर्म दर्शन संस्कृत प्राकृत विद्या के क्षेत्र में आया तब इनका भी साहित्य पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ। आपकी प्राकृत भाषा पर आधारित कृति है 'प्राकृत दीपिका' जो कि पार्श्वनाथ विद्याश्रम, वाराणसी से प्रकाशित है। इस कृति ने मुझे बहुत प्रभावित किया। प्राकृत के व्याकरण सूत्रों के साथ व्यवस्थित रूप से सिखाने का कार्य यह पुस्तक करती है। वर्ष 2013 का महर्षि वादरायण व्यास युवा राष्ट्रपति पुरस्कार जब मुझे प्राप्त हुआ तब मैंने उस राशि का उपयोग प्राकृत भाषा के लिए ही करने का मानस बनाया और 'पागदभासा' नामक एक पत्रिका निकाली। अब इसके प्रत्येक अंक में समाचार लेख और सम्पादकीय लिखना भी एक चुनौती से कम नहीं लगा, ऐसे वक्त में मुझे प्राकृत दीपिका ने बहुत मदद की। आज इस पुस्तक की दो प्रतियां मेरे पास हैं, एक मेरे घर के कार्यालय जिन फाउंडेशन, नई दिल्ली में और दूसरी मेरे अध्यापन कार्य स्थल, जैन दर्शन विभाग, श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली में। वो इसलिए कि पता नहीं होता कब इस कृति की आवश्यकता मुझे पड़ जाए।। मुझे भोगीलाल लेहरचंद इंस्टिट्यूट ऑफ इंडोलॉजी, दिल्ली में भी जब प्राकृत कार्यशाला में पढ़ाने जाना होता है तब भी मैं यह कृति अपने साथ ही रखता हूँ। आदरणीय अंकल जी के साथ मुझे ज्यादा वक्त गुजारने के मौका तो कभी नहीं मिला क्योंकि वे वरिष्ठ विद्वान थे, तथा मेरे पिताजी के साथ आज के डॉ. जयकुमार जैन तथा डॉ. नरेंद्र जैन जी आदि अनेक वरिष्ठ विद्वानों के भी गुरु जी रहे हैं किन्तु इन सभी से तथा पिताजी के मुख से इनकी अनेक विशेषताओं को सुनता रहा हूँ। मेरी भावना है कि आप शतायु हों तथा निरंतर माँ जिनवाणी की सेवा करते हुए आत्मकल्याण के शाश्वत मार्ग पर भी अग्रसर हों / प्रो. अनेकान्त कुमार जैन अध्यक्ष, जैन दर्शन, दर्शन सङ्काय, श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ ,नई दिल्ली मेरे सहपाठी की विविध क्षेत्रों में ऊँची उड़ान संस्कृत, प्राकृत एवं जैन विद्या के वरिष्ठ मनीषि विद्वान प्रोफेसर डॉ. सुदर्शनलाल जैन अपने जीवन के 75 बसन्त पूर्ण कर रहे हैं, यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुयी। उन्हें भूरिशः साधुवाद। सहज प्रतिभा सम्पन्न, जागरूक एवं प्रबुद्ध प्रो. जैन संस्कृत महाविद्यालय वर्णीभवन मोराजी, सागर तथा श्री स्याद्वाद महाविद्यालय भदैनी, वाराणसी में एक समय (1959-1960) हम दोनों एक साथ एक ही कक्षा एवं विषयों के अध्ययन में रत रहे हैं। सन् 1962 में साहित्य शास्त्री परीक्षा भी एक ही साथ पास की है। निस्संदेह डॉ. सुदर्शन लाल जैन सौभाग्यशाली हैं जो पठन-पाठन में मुझसे कुछ आगे निकल गए। पी-एच.डी. उपाधि धारण करते ही आप 1967 में बिजनौर जैन कॉलेज में प्राध्यापक बने और अगस्त 1968 में संस्कृत-पालि विभाग, काशी हिन्दु विश्वविद्यालय, वाराणसी में आपकी प्राकृत-संस्कृत प्रवक्ता के रूप में नियुक्ति हो गयी। इसी विश्वविद्यालय में आगे बढ़ते हुए आप रीडर एवं प्रोफेसर बने तथा विश्वविद्यालय के विभिन्न उत्तरदायित्वों का निर्विघ्न सफलतापूर्वक निर्वहन करते हुए विभागाध्यक्ष एवं कला सङ्काय के अधिष्ठाता (डीन) भी रहे। प्रो. जैन शिक्षा जगत् की 39 वर्षों तक मनोज्ञ एवं सफल सेवा कार्य करते हुए 30 जून 2006 में सेवानिवृत्त हुए। मेघावी प्रो. जैन ने अपने को गुरुजनों की दृष्टि में सदैव उत्कृष्ट बनाए रखा जो इनकी एक विशिष्ट विशेषता है। विनयशील डॉ. जैन स्वभावत: सरल, हंसमुख और मृदुभाषी हैं। छात्रों, मित्रों एवं सहयोगियों में परस्पर सद्भाव एवं मैत्री 40
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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