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________________ सिद्ध-सारस्वत कथनी-करनी की एकरूपता के आदर्श डॉ. सुदर्शनलाल जैन से मेरा परिचय लगभग 56 वर्ष पूर्व का है, जब वे उत्तराध्ययनसूत्र पर अपना शोधकार्य कर रहे थे। मेरे शोध का विषय भी उत्तराध्ययन, धम्मपद और गीता का तुलनात्मक अध्ययन ही था। मेरे शोध प्रबन्ध की मौखिकी हेतु डॉ. भीकनलाल अंत्रे आए थे, उन्होंने मुझे बताया कि उत्तराध्ययन पर तो बनारस में श्री सुदर्शनलाल जैन काम कर रहे है, अत: उन्होंने मुझे विषय बदलने का सुझाव दिया, फलत: मुझे अपना शोध विषय उनके सुझाव अनुसार एक ही रात में बदलना पड़ा। यद्यपि मैं इसी समय से ही श्री सुदर्शनलालजी जैन को जानता हूँ, फिर भी उनसे निकट परिचय मुझे प्रतिनियुक्ति पर बनारस जाने के बाद हुआ। वे एक श्रमनिष्ठ और पुरुषार्थी पुरुष है और उत्तराध्ययनसूत्र के माध्यम से उनकी श्वेताम्बर आगम साहित्य में भी गहरी पेठ है। उनके शोधप्रबन्ध का श्वेताम्बर परम्परा में हिन्दी से गुजराती में अनुवाद भी हुआ है और वह पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी से प्रकाशित भी है। डॉ सुदर्शनलाल जैन सरलमना व्यक्तित्व के धनी हैं, उनमें कथनी और करनी की एकरूपता है और यही कारण था कि विचारों के इस पक्ष पर मेरी उनसे गहन मित्रता भी है। दिगम्बर परम्परा में उत्पन्न होकर भी उन्होंने एक श्वेताम्बर आगम ग्रन्थ को अपना शोध का विषय बनाया, यही उनके व्यक्तित्व की विशेषता है। डॉ. सुदर्शनलाल जैन का व्यक्तित्व खांड के समान मधुर है। वे स्वभाव से सहज और सरलमना व्यक्तित्व के धारक हैं। उनके जीवन में मैंने दोहरेपन का अभाव पाया है। उन्होंने प्राकृत भाषा के लिए 'प्राकृत-दीपिका' नामक ग्रन्थ भी लिखा है। मैं उनके सहज व्यक्तित्व को प्रणाम करता हूँ और यह अपेक्षा करता हूँ कि वे शतायु होकर जीवनपर्यन्त ऐसे ही बने रहें। एक श्रमनिष्ठ और दूरदर्शी के रूप में उनका व्यक्तित्व दिनप्रतिदिन वृद्धिगत होता रहे। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ आपका भाई - प्रो. सागरमल जैन संस्थापक एवं डायरेक्टर, प्राच्य विद्या शोध संस्थान, शाजापुर हार्दिक अभिनन्दन काशी हिन्दू विश्वविद्यालय कला सङ्काय के संस्कृत एवं जैनविद्या के विद्वान प्रो. सुदर्शन लाल जैन का अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है यह जानकर अतिशय प्रसन्नता हुई। अभिनन्दन ही आनन्द दायक होता है यदि अभिनन्दन ग्रन्थ ही प्रकाशित हो रहा हो तो आनन्द में वृद्धि स्वाभाविक हो जाती है। प्रो. सुदर्शनलाल जी सुदर्शन होने के साथ साथ स्वभाव से विनम्र और सरल हैं। व्यवहारकुशल एवं मृदु भाषी होने के कारण तनाव पूर्ण परिस्थितियाँ इनसे दूरी बनाये रहती हैं और ये सदैव प्रसन्न रहते हैं। सेवा निवृत्ति के बाद भी ये शैक्षणिक संस्थाओं की विभिन्न गतिविधियों से सदैव जुड़े रहते हैं। इनकी शैक्षणिक सेवाओं के निमित्त इन्हें राष्ट्रपति सम्मान से अलंकृत किया जा चुका है। विद्वान् के जीवन का सुखद पक्ष यही होता है कि उसका स्वाध्याय, मनन, चिन्तन और लेखन निर्वाध चलता रहे। शिक्षण संस्थायें एवं सांस्कृतिक-सामाजिक संगठन उनके ज्ञान से लाभान्वित होते रहें। इन्हीं विशेषताओं से विद्वान् कभी सेवा निवृत्त नहीं माना जाता। उसकी सेवाओं की सदैव अपेक्षा बनी रहती है। मुझे विश्वास है भविष्य में भी संस्थायें प्रो. जैन की सेवाओं से लाभान्वित होती रहेंगी। मै इनके स्वस्थ, कर्मठ एवं दीर्घ जीवन की कामनाओं के साथ हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। प्रो. रामचन्द्र पाण्डेय पूर्व सङ्काय प्रमुख- संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान सङ्काय, बी.एच.यू, वाराणसी
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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