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________________ (आचार्य हस्तिमल्ल जी), प्रतिष्ठाकल्प -(आचार्य माघनंदि जी), जिनसंहिता (श्री कुमुदचन्द्राचार्यजी), प्रतिष्टा-सारोद्धार ( श्री ब्रह्मसूरि जी), प्रतिष्ठा- कल्प (श्री अकलंक भट्टारक), प्रतिष्ठादर्श-(श्री राजकीर्ति भट्टारक), प्रतिष्ठा पाठ - (आचार्य इन्द्रनन्दि जी), सिद्धान्तविनैश्चय (भारतीय ज्ञान पीठ प्रकाशन ), प्रतिष्ठासार सङ्गह (ब्र. सीतलप्रसादजी), मूलाचार (भारतीय ज्ञानपीठ) प्रकाशन), प्रतिष्ठा- चन्द्रिका (श्री शिवराम पाठकजी), पञ्चालिका (परमश्रुत प्रभावक मण्डल) मुम्बई, प्रतिष्ठा विधि दर्पण (श्री आ. कुन्थसागरजी), षट्खण्डागम (अमरावती में प्रकाशन), प्रतिष्ठा प्रदीप (श्री नाथूलाल जी), तत्त्वार्थसार - (जैन सिद्धान्त प्रकाशक संस्था,कलकत्ता), प्रतिष्ठा रत्नाकर (श्री गुलाबचंद जी), 1. द्रव्य सङ्गह टीका ( वीतरागवाणी ट्रस्ट, टीकमगढ़), प्रतिष्ठा दिवाकर (श्री विमलकुमार सोरया), मोक्षमार्ग-प्रकाशक (वीतरागवाणी ट्रस्ट टीकमगढ़) प्रतिष्ठाचार्य पं. विमलकुमार जैन सोरया एम. ए. (द्वय) शास्त्री - प्रधान सम्पादक-वीतरागवाणी, मासिक, टीकमगढ़ (म.प्र.) जैन आगम के आलोक में पूजन विधान प्रस्तावना- जिनेन्द्र देव की पूजा-परम्परा भगवान महावीर स्वामी के निर्वाण के बाद से मौखिक (कठगत) रूप में प्रचलित रही है। सर्वप्रथम पांचवी शताब्दी में प.पू. आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी का जैनाभिषेक प्राप्त होता है। नौवीं शताब्दी में आचार्य श्री नयनन्दी स्वामी का सकल विधि विधान एवं 10-11वीं शताब्दी में आचार्य अभयनन्दी स्वामी का शान्तिचक्र पूजा, आचार्य श्री मल्लिषेण का बज्रपंजर विधान तथा आचार्य कल्प श्री आशाधर जी का जिन-यज्ञ कल्प देखने को मिला। बारहवीं सदी में आचार्य श्री पद्मनन्दी जी का देवपूजा एवं पार्श्वनाथ विधान तथा 14 वीं शदी में आचार्य श्री श्रुतसागर जी का सिद्धचक्राष्टक एवं श्रुतस्कन्ध पूजा महाभिषेक आदि ग्रन्थ हैं। इसके बाद विद्वानों ने हिन्दी पद्यान्तर पूजा ग्रन्थों का निर्माण किया है। इन सभी के आधार पर तथा आगम के सैद्धान्तिक ग्रन्थों के परिप्रेक्ष में जो देखा है उसके आधार पर इस आलेख को प्रस्तुत कर रहा हूँ। अनेक पौराणिक ग्रन्थों तथा प्रतिष्ठा ग्रन्थों के आधार पर ही अर्हत् के पादमूल में भक्ति पूजा-विधान करना उपादेय है। पूजा का हेतु- राग प्रचुर होने के कारण गृहस्थों के लिए जिनेन्द्र की पूजा करना प्रधान और प्रथम कर्त्तव्य है। इसमें पञ्च परमेष्ठी की प्रतिमाओं का आश्रय होता है। परन्तु स्वयं के परिणामों की प्रधानता है जिसके कारण पूजक के द्वारा पूज्य के प्रति की गई भक्ति से असंख्यात-गुणी कर्म की निर्जरा होती रहती है। नित्य - नैमित्तक भेद से पूजा अनेक प्रकार की है। वाद्य, गान-नृत्य के द्वारा की गई पूजा प्रचुर फलदायी होती है। याग, यज्ञ, ऋतु, पूजा, इज्या, अध्वर, यह सब पूजा के ही पर्यायवाची शब्द है। अतः पूजा-विधान आगमोक्त विधि से युक्त होकर करना चाहिए। आत्महित में पूजा की आवश्यकता - देवपूजा गुरूपास्ति स्वाध्यायः संयमस्तपः। दाञ्चेति गृहस्थाणां षट् कर्माणि दिने दिने॥ (आ.समन्तभद्र) श्रावक के दैनिक षट् कर्त्तव्यों में सर्वप्रथम कर्त्तव्य भगवान जिनेन्द्रदेव की पूजा करना है। भावों की प्रधानता के कारण पूजक की असंख्यात गुणी पाप कर्मों की निर्जरा होती है और असंख्यात गुणा शुभ कर्मों का आश्रव होता है। जैन आगम में भगवान जिनेन्द्र देव के साथ निर्ग्रन्थ गुरु और जिनवाणी की पूजा का भी विधान है। श्रावक के षट् कर्त्तव्यों में देव पूजा को प्रथम कर्त्तव्य के रूप में हमारे परम्पराचार्यों ने निहित किया है। जिनेन्द्र भक्ति से हम अशुभ से बचकर शुभ में प्रवृत्त होते हैं। शुभ से ही शुक्ल की ओर बढ़ा जाता है। अशुभ से शुक्ल की ओर नहीं बढ़ते। अत: जिनेन्द्र देव की पूजा परम्परा से मोक्ष का कारण कही गई है। मुनि हो या श्रावक दोनों को जिनेन्द्र भगवान की पूजन करने का विधान है। मुनिराजों को भाव पूजा करने की आज्ञा है जबकि श्रावकों को द्रव्य पूजा करने का ही विधान है। मनुष्य जीवन की सार्थकता जिनेन्द्र भक्ति ही है। इसीलिए पूर्वाचार्यों ने इसे प्रधानता प्रदान की है। पूजा के प्रकार श्रावक और मुनि की अपेक्षा से पूजा द्रव्य और भाव से दो प्रकार की कही गई है। श्री जिनसेन स्वामी ने 453
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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