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________________ आचार्य जयसेन के पूर्व एवं परवर्ती आचार्यों ने कहीं भी किसी प्रकार के सूरिमन्त्र का उल्लेख अपने ग्रन्थों में नहीं किया। प्राण-प्रतिष्ठा मन्त्र भी परवर्ती विद्वानों ने अपने संगृहीत ग्रन्थों में जो सूरिमन्त्र लिखे हैं वे विभिन्न प्रकार के हैं जैसे, प्रतिष्ठादर्पण में गणधराचार्य श्री कुन्थसागरजी ने लिखा- 'ॐ ह्रीं यूं हूँ सुंसः क्रौं ह्रीं ऐं अहँ नमः'। पं. नाथूलाल जी ने प्रतिष्ठा प्रदीप ग्रन्थ में लिखा है -ॐ ह्वाँ ह्रीं हूँ ह्रीं ह्र: अ सि आ उसा अर्ह ॐ ह्रीं सम्ल्यूँ मयूँ जम्ल्यूँ त्म्ल्यूँ ल्म्ल्यूँ म्ल्यूँ फ्ल्यूँ म्ल्यूँ भव्यूँ क्ष्ल्यूँ क्म्लयूँ हूँ ह्राँ णमो अरिहंताणं ॐ ह्री णमो सिद्धाणं ॐ हूँ णमो आइरीयाणं ॐ ह्रौं णमो उवज्झायाणं ॐ ह्रः णमो लोए सव्वसाहूणं अनाहत-पराक्रमास्ते भवतु ते भवतु ते भवतु ह्रीं नमः। 'प्रतिष्ठा चंद्रिका' में पं. शिवराजजी पाठक ने लिखा है-ॐ ह्रीं ऐं श्रीं भू ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ माः ॐ ह्राः ॐ जनः तत्सविहुवरे एयं गर्भो देवाय धी महीधि योनि असिआ उसा णमो अरिहंताणं अनाहत-पराक्रमस्ते भवतु ते भवतु / यही प्रतिष्ठाचार्य श्री सोरया जी ने अपने प्रतिष्ठा दिवाकर' ग्रन्थ में लिखा है। ___ आचार्यकल्प पं. आशाधरजी ने अपने प्रतिष्ठा सारोद्धार ग्रन्थ में सूरि मन्त्र का निर्देश तो नहीं किया लेकिन केवलज्ञान होने पर निम्नांकित मन्त्र पाठ का निर्देश दिया ॐ केवलणाणदिवायर किरण कला वप्पणासि यण्णाणो। णव केवल लद्धागम सुजणिय परमपरा ववएसो। असहायणाण दंसणसहिओ इदि केवली हु जोएण। जुत्तोत्ति सजोगिजिणो अणाइणि हणारिसे उत्तो। इत्येषो र्हत्साक्षद् त्राव तीर्णो विश्वं पात्विति स्वाहा। इसके अलावा हमारे पास 6 प्रकार के सङ्गहीत प्रतिष्ठा ग्रन्थ हैं उनमें ब्र. शीतलप्रसाद जी और पुष्पजी ने तो आचार्य जयसेन का ही मन्त्र संगृहीत किया। बाकी पं. शिवराजजी पाठक के प्रतिष्ठा चंद्रिका गणधराचार्य श्री कुन्थसागर के संगृहीत प्रतिष्ठा विधि दर्पण एवं पं. नाथूलालजी शास्त्री के प्रतिष्ठा प्रदीप एवं श्री सोंग्या जी के प्रतिष्ठा दिवाकर' संग्रह ग्रन्थों में पृथक-पृथक सूरिमन्त्र दिए हैं। उन्होंने ऐसे किसी भी ग्रन्थ का निर्देश नहीं दिया कि यह सूरिमन्त्र उन्होंने कहाँ से संगृहीत किया है। मैंने आचार्य श्री विमलसागर जी से सूरिमन्त्र प्राप्त होने का निर्देश दिया है। गणधराचार्य श्री कुन्थसागरजी द्वारा संगृहीत प्रतिष्ठा ग्रन्थ 'प्रतिष्ठा-विधि-दर्पण' में द्वितीय खण्ड पृष्ठ 292 पर लिखा है कि गुरु परम्परा से प्राप्त आचार्यों ने सूरि मन्त्र को गोप्य रखा इसलिए शास्त्रों में वर्णन नहीं मिलता। सूरिमन्त्र देने के संदर्भ में गणधराचार्य जी ने दिगम्बर मुनि महाव्रती द्वारा ही सूरि मन्त्र देने की बात लिखी है। 'दिगम्बर होकर प्रतिष्ठाचार्य को सूरिमन्त्र नहीं देना' ऐसा स्पष्ट उल्लेख किया। मैं नहीं कह सकता यह निर्देश उन्होंने कहाँ से प्राप्त किया। पञ्च कल्याणकों के समस्त संस्कार प्रतिष्ठाचार्य करें और फिर जहाँ मुनि सम्भव न हो वहाँ फिर प्रतिष्ठाचार्य सूरि मन्त्र दे या न दे इसका समाधान नहीं दिया, दिगम्बर होकर प्रतिमा संस्कार करना अलग बात है और दिगम्बर होकर महाव्रत धारण करना अगल बात है। प्रतिष्ठा-प्रदीप संगृहीत प्रतिष्ठा ग्रन्थ में पं. नाथूलालजी शास्त्री ने ग्रन्थ में द्वितीय भाग पृष्ठ 185 पर लिखा है कि सूरिमन्त्र का 108 बार जाप प्रतिष्ठाचार्य करें। पश्चात् उसी मन्त्र को मुनि से प्रतिमा में दिलाने का निर्देश दिया है। प्रतिष्ठा चंद्रिका संगृहीत ग्रन्थ के पृष्ठ 236 पर पं. श्री शिवरामजी पाठक लिखते हैं कि मुनि ब्रह्मचारी के अभाव में स्वयं नग्न होकर प्रतिष्ठाचार्य 108 बार जाप करके समस्त प्रतिमाओं को मंत्रित करे। यद्यपि मैंने जीवन में अनेकों बार महाव्रती मुनिराजों के अभाव में प्रतिमाओं को दिगम्बर होकर सूरिमन्त्र दिए हैं मुझे नहीं लगता कि यह गलत है। क्योंकि सूरिमन्त्र का पाठ अंतरङ्ग बहिरङ्ग परिग्रह का कुछ समय के लिए त्याग कर मूर्ति का संस्कार किया गया है। सूरि मन्त्र देना भी एक संस्कार की ही क्रिया है। मेरे देखने में यह नहीं आया कि किसी आगम में आचार्य ने ऐसा कहीं उल्लेख किया हो कि सूरिमन्त्र किस विधि से कौन, कैसे दे। अगर परम्परागत सूरिमन्त्र प्रतिमा में देने की बात आई है तो मेरी दृष्टि में भी यह अच्छी परम्परा है कि सम्पूर्ण संस्कारों के बाद प्रतिमा में एक निर्ग्रन्थ सूरिमन्त्र दें। इससे दो लाभ हैं एक तो निग्रन्थ जिन प्रतिमा की तीर्थङ्कर जैसी सम्पूर्ण पात्रता के लिए सूरिमन्त्र से आभाषित करना। दूसरे महाव्रताचरण जैसा महामागी पूज्यशाली व्यक्ति ही महाव्रताचरण की अंतिम श्रेणी में अवस्थित होने की पात्रता का संस्कार दे। इस दृष्टि से भी सार्थक है। लेकिन महाव्रती के अभाव में प्रतिष्ठाचार्य उसको संस्कारित करें! इसमें मेरी दृष्टि में कहीं दोष नहीं है। श्रेष्ठता और पूज्यता की दृष्टि से महाव्रती सूरिमंत्र देवें, यह उचित है। इस लेख के लेखन में निम्न ग्रन्थों का आलोडन किया गया है - प्रतिष्ठातिलक (आचार्य नेमिचंद्र जी), प्रतिष्ठा पाठ (आचार्य जयसेन जी, वसुविन्दु), प्रतिष्ठा दीपक (आचार्य नरेन्द्र सेन जी), प्रतिष्ठा पाठ (आचार्य वसुनंदि जी), प्रतिष्ठा-सारोद्धार (आचार्य कल्प पं. आशाधर जी), जिनेन्द्र-कल्याणाभ्युदय 452
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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