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________________ सिद्ध-सारस्वत शुभाशंसा प्रो० सुदर्शनलाल जी जैन परम नैष्ठिक जैन धर्मावलम्बी हैं। इनके साथ इनकी धर्मपत्नी और पूजनीया सास, जो अब शिवसायुज्य को प्राप्त कर गयी हैं, को मैंने देखा है कि वे जैन धर्म के आचार-व्यवहार का साक्षात् विग्रह रही हैं। जैन धर्म में प्राप्त होने वाले सामान्य व विशिष्ट दोनों प्रकार के आचार-व्यवहार आपके परिवार में प्रतिष्ठित हैं, यह प्रसन्नता का विषय है। आचार की शुद्धि से ही सत्त्व की शुद्धि होती है और वही मनुष्य के बन्धन के कंचुक को समाप्त करने में साधक होता है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में सुदीर्घ सेवाकाल के दौरान प्रो0 जैन निरन्तर अध्ययनशील रहे और यथामति नवीन ग्रन्थों के लेखन, सम्पादन, अनुवाद, संरक्षण और सर्वोपरि छात्रोपयोगी संस्कृत व्याकरण - 'संस्कृतप्रवेशिका' के रूप में उपलब्ध कराने में सहायक रहे। उनकी यह सफलता श्लाघनीय है। मैं उनका अभिनन्दन करता हूँ और उनके दीर्घायुष्य और उत्तम स्वास्थ्य की कामना करता हूँ। प्रो. रेवाप्रसाद द्विवेदी अध्यक्ष, कालिदास संस्थान,इमेरिटस प्रोफेसर, संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान सङ्काय,काशी हिन्दू विश्वविद्यालय शुभाशंसनम् काश्यां पूततमे क्षेत्रे पुण्ये भागीरथीतटे। विश्वविख्यातहिन्वाख्याविश्वविद्यालयः स्थितः। 1 / / कलेत्याख्येऽत्र सङ्काये विभागोऽस्त्येव संस्कृतः। शास्त्रज्ञैर्बहुभिः पुष्टो देशदेशान्तरे श्रुतः / / 2 / / विभागाध्यक्षतारूढः सङ्कायप्रमुखस्तथा। सुदर्शनाख्यजैनोऽसौ लोकविश्रुतितां गतः / / / / कायेन मनसा वाचा यस्यास्ति दर्शनं शुभम्। सोऽयं सुदर्शनो नामा ख्यातेऽस्ति कर्मनिष्ठ्या।।4।। मीमांसादर्शने प्रौढः संस्कृतवाक्प्रशिक्षणे। जैनागमादिशास्त्रेषु कृतभूरिपरिश्रमः / / 5 / / सम्मानितोऽस्ति सद्योऽसौ राष्ट्रपतिमहोदयैः / पुरस्कृतोऽस्ति तत्कीर्त्या बहुभिः प्रान्तशासनैः / / 6 / / अतीव सरलः श्रेयान् मृदुभाषी स्वभावतः। जैनधर्मावलम्ब्येष वाङ्मनः संयमव्रती।।7।। निर्वैरो निर्भयश्चासौ परहितकरः सदा। 27
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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