SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 449
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नत्रय की अनुपम प्रकाशिका : 'देव, शास्त्र और गुरु' की समीक्षा 'देव, शास्त्र और गुरु' कृति एक ऐसी कृति है जिसमें इसके कृतिकार प्रो. सुदर्शनलाल जी ने जैनागम का सार निबद्ध कर दिया है। हमारी श्रद्धा की संशुद्धि के लिए यह अनिवार्य है कि हमें हमारी आस्था और श्रद्धा के केन्द्र देवशास्त्र और गुरु के स्वरूप का समीचीन ज्ञान होना चाहिए। सच्चे देव, शास्त्र और गुरु के प्रति यथार्थ श्रद्धा जहाँ सम्यक्त्व को जन्म देती है वहीं देव-शास्त्र-गुरु के स्वरूप के सन्दर्भ में व्याप्त भ्रान्ति हमारे अन्तरङ्ग में मिथ्यात्व का घोर तिमिर भर देती है। देवत्व की प्राप्ति जहाँ हमारा लक्ष्य है वहीं शास्त्र उस लक्ष्य की प्राप्ति के पथ को प्रदर्शित करते हैं और गुरु उस पथ पर चलकर आदर्श बनकर हमारा मार्गदर्शन करते हैं। वर्तमान समय में धर्म में बढ़ने वाले आडम्बर और प्रदर्शन के पीछे एक बड़ा कारण यही है कि वर्तमान पीढ़ी को धर्म के मूलाधार देव-शास्त्र-गुरु की वास्तविक पहचान नहीं है। यही कारण है कि धर्म क्षेत्र में पाखण्ड और अनाचार बढ़ता जा रहा है और उसका वर्तमान परिदृश्य विकृत होता जा रहा है। इस गम्भीर समस्या को देखते हुए मिथ्यात्व के उन्मूलन के लिए अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद् ने 15 नवम्बर 1992 को सतना (म.प्र.) में एक महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किया था कि परिषद् के द्वारा एक ऐसी कृति प्रकाशित की जाए जिसमें देव-शास्त्र और गुरु का समीचीन स्वरूप वर्णित हो और यह कृति आगम के आलोक में भी पूर्ण प्रामाणिक हो। अ.भा. दि. जैन विद्वत्परिषद् ने अपने उपर्युक्त निर्णय के अनुरूप कृति लेखन का गम्भीर उत्तरदायित्व विद्वद्वरेण्य प्रो. सुदर्शनलाल जैन को प्रदान किया। प्रो. साहब ने इस सारस्वत कार्य को श्रद्धापूर्वक अथक परिश्रम के द्वारा छह माह में पूर्ण कर दिया। इसके बाद पण्डित जगन्मोहन लाल जी शास्त्री एवं डॉ. दरबारी लाल कोठिया जैसे वरिष्ठ विद्वानों ने इस कृति का सूक्ष्म परीक्षण किया और उन्होंने इस कृति की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए कुछ महत्त्वपूर्ण सुझाव प्रदान किये। प्रो. सुदर्शनलाल जी ने सभी महत्त्वपूर्ण सुझावों के अनुरूप इस कृति को जून 1994 में अन्तिम रूप प्रदान किया। परिमाण और विषयवस्तु की दृष्टि से यदि इस कृति को देखें तो यह कृति एक सौ बयालीस पृष्ठों में प्रकाशित है और इसकी विषय वस्तु चार अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में देव (अर्हन्त और सिद्ध) का स्वरूप वर्णित है। द्वितीय एवं तृतीय अध्याय में क्रमश: शास्त्र और गुरु के स्वरूप को प्रकाशित किया गया है। अन्तिम अध्याय में कृतिकार ने उपसंहार के रूप में शास्त्रीय सन्दर्भो का विशेषण करते हुए अपना मौलिक चिन्तन भी व्यक्त किया है। चार अध्यायों के उपरान्त प्रो. साहब ने इस कृति में दो महत्त्वपूर्ण परिशिष्टों का योजन भी किया है। इन परिशिष्टों में दिगम्बर जैन परम्परा के सभी महत्त्वपूर्ण आचार्यों के नाम एवं समय के साथ-साथ उनके द्वारा रचित शास्त्रों का नामोल्लेख किया है। इन परिशिष्टों ने इस कृति की उपयोगिता को और अधिक बढ़ा दिया है। प्रो. साहब ने इस कृति का लेखन शोधात्मक दृष्टि से किया है। उन्होंने इस कृति की प्रत्येक पंक्ति को शास्त्रीय संदर्भो से पुष्ट किया है। इस कारण यह कृति भी एक शास्त्र की तरह समादृत हो गयी है। इस कृति में विवेचित विषयवस्तु जहाँ एक ओर पूर्णतः प्रामाणिक है वहीं दूसरी ओर नितान्त प्रासङ्गिक भी है। इस कृति में देव-शास्त्र और गुरु के सम्यक् स्वरूप को प्रकाशित करने वाले अनेक उल्लेखनीय प्रमाण प्रस्तुत किये गए हैं। इन शास्त्रीय प्रमाणों के आधार पर 'देव, शास्त्र और गुरु' के लेखक प्रो. सुदर्शनलाल जी ने अनेक विशिष्ट विचार और निष्कर्ष प्रस्तुत किये हैं। इनमें से कुछ प्रमुख निष्कर्ष और विचारों को यहाँ उद्धत किया जा रहा है - _ 'पद्मावती, क्षेत्रपाल आदि को मन्दिरों में भगवान् के सेवक के रूप में प्रतिष्ठित किया जाता है। ये भगवान् की तरह पूज्य नहीं हैं। जिनेन्द्र भक्त होने से क्षेत्रपालादि में साधर्म्य-वात्सल्य रखा जा सकता है, पूज्य देवत्व मानना मूढता (अज्ञान) है। सरागी देवों से अनर्घ्यपद (मोक्षपद) प्राप्ति की कामना करके उन्हें मन्त्र पढ़कर अर्घ्य चढ़ाना अज्ञान नहीं तो क्या है ? इनके अलावा संसार में कई कल्पित देव (अदेव) हैं। जिन क्षेत्रपाल आदि के नाम जैन सम्मत देवगति के जीवों में आते हैं उन्हें कुदेव (अधम या मिथ्यादृष्टि देव) कहा गया है तथा जिनका नाम जैनसम्मत देवगति में कहीं नहीं 429
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy