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________________ हैं (वीतरागी हैं)। शेष चार प्रयोजनों में भी चौथा और पाँचवा प्रयोजन अधिक अभीष्ट है। अतः आपकी रचनाओं में भक्तिरस या शान्तरस की प्रमुखता है। आपकी रचनाओं में कलापक्ष और भावपक्ष दोनों समाहित हैं। पदे-पदे अनुप्रास आदि शब्दालंकार, उपमा आदि अर्थालंकार तथा शब्दवैचित्र्य दृष्टिगोचर होता है। इस सन्दर्भ में भावनाशतक के निम्न दो पद्य प्रस्तुत हैं - असमयवर्षास्तमित धान्यं वासुधातलममनस्तमितम्। फलति न कमपि स्तमिते ह्यकालिकीनुतिरकास्त! मितम्।।84।। अशने सदंशनेन रस इनेन जयो वै सदंशनेन। प्राप्यतेऽदंशनेन तथा कमगेनाऽदंशनेन।। 85 / / अर्थ - हे निर्दोष (हे अकास्त)! हे अमन (मनरहित) ! जिस प्रकार असमय की वर्षा से भीगे पृथ्वीतल को प्राप्त हुआ धान्य फलता नहीं है उसी प्रकार अकाल (असमय) में की हुई स्तुति निश्चय ही किञ्चित् भी स्थायी सुख को नहीं देती हे निर्दोष (हे अदंश)! है पूज्य स्वामिन् ! जिस प्रकार दन्तसहित व्यक्ति भोजन से रस-स्वाद प्राप्त करता है तथा जिस प्रकार कवचसहित (सदंशनेन) राजा के द्वारा निश्चय ही विजय प्राप्त की जाती है उसी प्रकार अखण्ड स्तवन् (अदंशनेन) से परम सुख प्राप्त (इतम्) किया जाता है। इन दोनों पद्यों में शब्दालङ्कार, उपमा, कलापक्ष, पदलालित्य, अर्थगाम्भीर्य और भावपक्ष सभी कुछ है। संस्कृतसाहित्य में कालिदास की उपमा, दण्डी का पदलालित्य, भारवि का अर्थगाम्भीर्य तथा नैषधकार में इन तीनों गुणों की प्रसिद्धि है - उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थगौरवम्। दण्डिनः पदलालित्यं माघे सन्ति त्रयो गुणाः।। शान्तरस, भक्तिरस या आध्यात्मिकरस प्रधान काव्यों में इन सभी गुणों का एकत्र समावेश अन्यत्र दुर्लभ है। काव्यनिर्माण के हेतु - काव्य निर्माण के लिए तीन हेतुओं का होना आवश्यक है - शक्तिर्निपुणता लोकशास्त्रकाव्याद्यवेक्षणात्। काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे।। का.प्र. 1.3 (1) शक्ति (नव-नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा), (2) निपुणता (व्युत्पत्ति अर्थात् लोक-व्यवहार, शास्त्र, इतिहास, व्याकरण आदि का व्यापक ज्ञान) तथा (3) अभ्यास (पौन:पुन्येन प्रवृत्ति)। इन तीनों कारणों की समष्टि से ही काव्यरचना होती है। इनमें भी शक्तिरूप प्रतिभा सबमें प्रमुख है क्योंकि इसके विना रचित काव्य उपहास को प्राप्त होता है। आचार्यश्री की प्रतिभा अद्वितीय है। अत: जिस मिट्टी को वे छू देते हैं वह सुवर्णकलशवत् पूज्य हो जाती है। आपकी काव्यरचना में प्रथम दो हेतु ही देखे जाते हैं। प्रतिभा ऐसी है कि शब्द और अर्थ अनायास प्रकट होकर नाचने लगते हैं। गुरुभक्ति का आदर्श - निजानुभव शतक (समग्र 3.2 पृ. 307) में गुरु ज्ञानसागर के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करते हुए लिखा है थे ज्ञानसागर गुरु मम प्राण प्यारे, थे पूज्य साधुगण से बुध मुख्य न्यारे। शास्त्रानुसार चलते, मुझको चलाते, बंदू उन्हें विनय से, शिर को झुकाते। आपने अपने अमृताक्षर (पृ.3/119), मानस सङ्केत (पृ.3/219), अमिताक्षर (पृ.3/1) मनोभावना (पृ.2/1-3) आदि में अपने वयोवृद्ध-तपोवृद्ध-ज्ञानवृद्ध आचार्यगुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज को प्रसाद-परिपाक बतलाते हुए। तथा अपने गुरु को गुरुचरणारविन्द चञ्चरीक प्रकट करते हुए ॐ शुद्धात्मने नमः, ॐ निरञ्जनाय नमः, ॐ जिनाय नमः के साथ ॐ निजाय नमः लिखा है। आप कहीं भी चूकते नहीं है अपने गुरु को महत्त्व देने में। आपने जो भी विपुल साहित्य लिखा है उसका श्रेय स्वयं को न देकर गुरु को ही देते हैं। कर्मोदय होने मात्र से बन्ध नहीं होता - निजानुभवशतक में कर्मोदय का रोना रोने वालों को सचेत करते हुए कहते हैं तू ने किया विगत में कुछ पुण्य-पाप, जो रहा उदय में स्वयमेव आप। होगा न बंध तब लौं, जब लौं न राग, चिंता नहीं उदय से, बन वीतराग। वही,86 380
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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