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________________ अपितु सहज अजर अमर अमूर्त आत्मा की ओर सङ्केत करते हुए विषयकषायों से ऊपर उठकर परम शान्ति के पथ का प्रदर्शन करता है। जो अपनी इन्द्रियों को और आत्मा को पूर्णरूप से जीतता है, उन्हें कुमार्ग में जाने से रोकता है, वह 'जिन' है और 'जिन' ही जैन (जितेन्द्रिय) है- 'जयति स्वकीयानि इन्द्रियाणि आत्मानं स जिनः, जिन एव जैन इति' गी: - वाणी। गी: का भाव या सार अर्थ में 'ता' प्रत्यय करने पर 'गीता' शब्द निष्पन्न होता है। यही 'जैन गीता' का अर्थ है अर्थात् जिनेन्द्र वाणी का सार। जैनागमों का प्रयोजन - जैनागमों की रचना केवल पौगलिक शब्द परिणति नहीं है। अत: आवश्यक है कि शब्दों में ही न उलझकर शब्दावबोध के बाद उसका अर्थावबोध करें और अर्थावबोध करके ही शान्त न हो जायें अपितु उस परमसत्ता का स्वानुभव करें। उस परमसत्ता का मनन-मन्थन करके जो नवनीत निकले उसका आस्वादन करें। यही जैनागमों का या द्वादशाङ्ग वाणी का प्रयोजन है, अन्य कुछ नहीं। इसी में जीवमात्र का कल्याण है। शुभोपयोग भी सम-सामयिक क्यों है ? शुद्धात्मा का स्वरूप लखना तजकर लिखना साधु का कार्य नहीं है। फिर आचार्यश्री ने लिखने में क्यों प्रवृत्ति की ? इसके उत्तर में उन्होंने कहा चिरानुभूत संकल्प-विकल्प के संस्कार ने चञ्चल मन को लिखने के विकल्प की ओर आकृष्ट किया, फलस्वरूप आभ्यन्तर परिणति (शुद्धोपयोग) छूटी और बहिःपरिणति (शुभोपयोग) प्रवाहित हुई। आगे इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है -'छद्मस्थ का मनोबल इतना निर्बल है कि वह अन्तर्मुहूर्त के उपरान्त अपने चञ्चल स्वभाव का परिचय दिए बिना नहीं रहता। इसी से इस मन में प्रस्तुत कृति लिखने का विकल्प किया। यह भी समयोचित ही हुआ। आगमोल्लेख है कि विषयकषाय रूप अशुभोपयोग से बचने के लिए सहज स्वभाव शुद्धोपयोग की उपलब्धि के लिए तत् साधनभूत शुभोपयोग का आलम्बन लेना मुनियों, सत्पथ साधकों एवं सन्तों के लिए भी सामयिक तथा उपादेय है।' इस तरह मन की चञ्चलता (मन एक अन्तमुहूर्त से अधिक एक विषय पर स्थिर नहीं रह सकता) को नियन्त्रित करने के लिए तथा अशुभपयोग से बचने के लिए शुभोपयोग भी उपादेय है। इस कथन के द्वारा उन्होंने ग्रन्थ लेखन में प्रवृत्ति का कारण स्पष्ट करते हुए तथा निश्चय एकान्तवादियों का खण्डन करते हुए बहुत बड़ी महत्त्वपूर्ण बात कही है। शुद्धोपयोग में निरन्तर लगना एक अन्तर्मुहूर्त से भी अधिक सम्भव नहीं है। अत: उसे विषयकषायों में जाने से रोककर शुभोपयोग में लगाना समयोचित है। इस तरह निश्चय व्यवहारनय का सम्यक् समाधान दिया है। आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार का पद्यानुवाद करते हुए भी यही कहा है - भूतार्थ शुद्धनय है, निज को दिखाता भूतार्थ है, न व्यवहार हमें भुलाता। भूतार्थ की शरण लेकर, जीव होता सम्यक्त्व मण्डित, वही मन मैल धोता।। शुद्धात्म में निरत हो, जब सन्त त्यागी, जीवे विशुद्धनय आश्रय ले विरागी। शुद्धात्म से च्युत सरागचारित्र वाले भूले न लक्ष्य, व्यवहार अभी संभाले।। 14 / / इससे स्पष्ट है कि शुद्धोपयोग रूप शुद्ध निश्चय नय भूतार्थ (सत्यार्थ) हने से उपादेय है परन्तु जब तक यह संभव न हो तब तक व्यवहारनयाश्रित शुभोपयोग को सँभालना चाहिए। शुद्धोपयोगी तो पूर्ण वीतरागी ही हो सकता है। काव्यरचना का प्रयोजन और उसका कलापक्ष -भावपक्ष - आचार्य मम्मट ने काव्यप्रकाश में काव्यरचना के 6 प्रयोजन बतलाये हैं - काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये। सद्यः परनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे।। का. प्र. 1.2 अर्थ - (1) यश:प्राप्ति, (2) अर्थोपलब्धि, (3) लोक व्यवहार का ज्ञान, (4) शिवेतर क्षति (अनिष्टनाशक), (5) शीघ्र परिनिर्वाण (मोक्ष या परमानन्द) और (6) स्त्री के समान सरस कर्तव्याकर्तव्य का उपदेश ये 6 प्रयोजन काव्य लिखने के संस्कृत साहित्य में प्रसिद्ध हैं। इनमें से प्रथम दो प्रयोजन आचार्यश्री विद्यासागर को अभीष्ट नहीं हैं क्योंकि वे इनसे परे 379
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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