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________________ अथवा बुद्धि का पदार्थ के आकार का होना अनुभव विरुद्ध है तथा इन्द्रिय के अचेतन होने से इन्द्रियवृत्ति भी अचेतन (अज्ञानरूप) होगी। इस तरह सांख्य-योग दर्शन में भी न्याय-वैशेषिक की ही तरह अज्ञानरूप इन्द्रियवृत्ति को प्रमाण और ज्ञान (पौरुषेय बोध) को फल स्वीकार किया गया है। वेदान्त : अन्तःकरणवृत्ति वेदान्त दर्शन में न तो इन्द्रिय को और न इन्द्रियवृत्ति को प्रमाण माना गया है अपितु अन्त:करणवृत्ति को प्रमाण माना गया है। वेदान्त दर्शन में प्रत्यक्ष स्थल में ज्ञान की प्रक्रिया क्रमश: इस प्रकार है-1. इन्द्रिय और अर्थ का सन्निकर्ष, 2. इन्द्रिय और अन्तःकरण (मन) का सन्निकर्ष, 3 इन्द्रियोपरूढ़ अन्तःकरण के साथ अर्थ का सन्निकर्ष, 4. अन्तःकरण का विषयाकार परिणमन, 5. उस पर चैतन्य का प्रतिबिम्ब, पश्चात् 6. पदार्थज्ञान / इस तरह यहाँ प्रमातृ-चैतन्य (आत्मा), प्रमाण-चैतन्य (अन्त:करणवृत्ति ) और प्रमेय-चैतन्य (घटादि पदार्थ) ये तीनों जब एकाकार होते हैं तभी ज्ञान होता है। अनुमानादि स्थल में व्याप्तिज्ञानादिजन्य अन्तःकरणवृत्ति प्रमाणरूप होती है। वहाँ अन्तःकरण वह्नि आदि के देश में नहीं जाता है। क्योंकि वह्नि आदि के साथ चक्षु आदि इन्द्रियों का सन्निकर्ष नहीं होता है। इस तरह वेदान्त दर्शन में अन्तःकरणवृत्ति को प्रमाण मानने से वह भी अज्ञान रूप ही हुआ / मीमांसा : ज्ञातृव्यापार, ज्ञान तथा अनुभूति मीमांसा दर्शन में दो मुख्य सम्प्रदाय हैं-1. भाट्ट (कुमारिलभट्ट और उनके अनुयायी) तथा 2. प्रभाकर (प्रभाकर गुरु और उनके अनुयायी)। भाट्ट मीमांसकों के अनुसार अज्ञात (अनधिगत = अपूर्व) और यथावस्थित अर्थ का निश्चय करानेवाला ज्ञान प्रमाण है।" एक अन्य लक्षण में कहा है-'जो अपूर्व अर्थ को जानने वाला हो, निश्चित हो, बाधाओं से रहित हो, निर्दुष्ट कारणों से उत्पन्न हो और लोकसम्मत हो वह प्रमाण है। इस तरह इस मत में ज्ञान को प्रमाण माना गया प्रभाकर मत में अनुभूति' तथा ज्ञातृव्यापार दोनों को प्रमाण माना गया है। अनुभूति तो प्रमाण नहीं हो सकती क्योंकि विभिन्न व्यक्तियों को एक ही अर्थ की अनुभूति अपनी-अपनी भावना के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। अत: वह प्रमा और अप्रमा उभयरूप सम्भव है। ज्ञातृव्यापार का तात्पर्य है-आत्मा, मन, इन्द्रिय और पदार्थ-इन चारों का सम्बन्ध होने पर ज्ञाता (आत्मा) का व्यापार (क्रिया) होता है। यह ज्ञाता का व्यापार पदार्थ का ज्ञान कराने में साधकतम होने से प्रमाण है। इस तरह इस मत में अन्त:करणवृत्ति से ऊपर उठकर आत्मा की वृत्ति (व्यापार) में प्रमाणता स्वीकार की गई है। यह ज्ञाता का व्यापार अज्ञानरूप ही है और वह ज्ञानरूप फल ( प्रमा) को पैदा करता है। परन्तु ज्ञातृव्यापार में प्रमाणता युक्तिसङ्गत नहीं है। बौद्ध : ज्ञान बौद्ध दर्शन में स्वसंवेदी अज्ञातार्थज्ञापक अविसंवादी (यथार्थ ) ज्ञान को प्रमाण माना गया है। इस दर्शन की मुख्य विशेषता यह है कि प्रमाण और फल में यद्यपि अभेद माना गया है फिर भी प्रमाणरूप ज्ञान को विषयाकार परिणत माना गया है। इस तरह बौद्ध दर्शन में ज्ञान को ही प्रमाण माना गया है, इन्द्रियादि को नहीं। जैन : ज्ञान जैन दर्शन में ज्ञान को ही प्रमाण माना गया है। इस का सर्वप्रथम स्पष्ट उल्लेख आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में किया है। इसके पश्चात् आचार्य समन्तभद्र ने स्व और पर (अर्थ) के प्रकाशक ज्ञान को प्रमाण कहा है। आचार्य सिद्धसेन ने भी बाधारहित स्व-परप्रकाशक ज्ञान को प्रमाण बतलाया है। यह बाधारहित विशेषण से ज्ञात होता है कि जो भी ज्ञान (भ्रमरूप या प्रमारूप) होता है वह स्वपरप्रकाशक ही होता है। अतः भ्रमस्थल का निराकरण करने के लिए बाधा रहित विशेषण देना उचित ही है। इसके बाद अकलङ्कदेव ने स्व-पर के प्रकाशक व्यवसायात्मक (निश्चयात्मक) अथवा अविसंवादी ज्ञान को प्रमाण माना हैं अकलङ्कदेव ने सिद्धसेन के बाधविवर्जित के स्थान पर व्यवसायात्मक और अविसंवादी पदों का प्रयोग किया है जो लक्षण का परिमार्जन है, अर्थ भेद नहीं। कहीं-कहीं अकलङ्कदेव के द्वारा प्रमाणलक्षण में 'अनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात्', 'अनिर्णीतनिर्णायकत्वात्' और 'अनिश्चितनिश्चयात्' पदों का भी प्रयोग किया गया है जिसके आधार पर किन्हीं विद्वानों ने यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि अकलकदेव अज्ञातार्थज्ञापक (जो पहले से ज्ञात नहीं है उसका ज्ञान कराने वाला) ज्ञान को ही प्रमाण मानते थे, गृहीतग्राही (धारावाहिक) ज्ञान को नहीं" यह कथन सर्वथा भ्रामक है क्योंकि एक तो इन शब्दों के प्रयोग का केवल इतना तात्पर्य है कि जो अज्ञात, अनिर्णीत और 288
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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