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________________ का गुण है और न स्वतन्त्र द्रव्य अपितु पुद्गलद्रव्य की पर्याय है। वाच्यार्थ का सही ज्ञान नय और निक्षेप पद्धति से सम्भव है। शब्द की अनित्यता तथा उसके द्रव्यरूप या गुणरूप होने का विचार - जैन दृष्टि से शब्द पुद्गलद्रव्य (रूप-रस-गन्ध-स्पर्श आदि से युक्त अचेतन तत्त्व) की पर्याय है। प्रत्येक द्रव्य में दो प्रकार के धर्म पाये जाते हैं-नित्य धर्म (गुण) और अनित्य धर्म (पर्याय)। भाषा वर्गणारूप पुद्गल के परमाणु (पुद्गल के वे परमाणु जो शब्दरूप में बदलने की योग्यता रखते हैं) ही निमित्त पाकर शब्दरूप परिणत हो जाते हैं। अर्थात् जब वे पुद्गल-परमाणु संयोगविभाग आदि निमित्त पाकर शब्दरूप परिणत होते हैं तो उसे पुद्गल की पर्याय कहते हैं। यह शब्दरूप परिणमन शक्ति केवल पुद्गल के भाषा वर्गणारूप परमाणुओं में ही है, अन्य में नहीं। यह परिणमन क्षणिक होता है। अत: ये पुद्गल के अनित्य धर्म कहे जाते हैं। ये शब्द न तो वायुरूप हैं और न आकाशगुण रूप स्वीकृत हैं। ये स्वरूपतः गत्यात्मक हैं। इन पर देश-काल का प्रभाव पड़ता है। चारों ओर इनका वीची-तरङ्गन्याय से विस्तार होता है जिसमें वायु सहायक कारण बनता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने शब्दोत्पत्ति के सम्बन्ध में कहा है सद्दो खंधप्पभवो खंधो परमाणुसङ्गसंधादो।। पुढेसु तेसु जायदि सद्दो उप्पादिगो णियदो।। पञ्चास्तिकाय 79 अर्थ-परमाणुओं के सङ्घात (परस्पर संयोगविशेष) से स्कन्ध बनता है और उन स्कन्धों के परस्पर टकराने से शब्द उत्पन्न होता है। अतः शब्द निश्चय से उत्पाद्य (अनित्य) है। स्पष्टार्थ-जिस प्रकार परमाणुओं में गन्धादि गुण अव्यक्त रूप से सदा रहते हैं उसी प्रकार शब्द भी परमाणुओं में रहते हैं, ऐसा नहीं है। क्योंकि शब्द स्कन्धों के टकराने से उत्पन्न होते हैं और वे श्रवणेन्द्रिय का विषय होने से मूर्त (स्कन्धरूप) हैं। शब्द में रूपादि भी हैं। परन्तु अनुद्भूत हैं। अत: वे पुद्गलस्कन्ध की पर्याय (अनित्य धर्म) हैं, गुण नहीं। वस्तुतः शब्द अनन्त पुद्गल परमाणुओं की स्कन्धात्मक पर्याय है जो बाह्य निमित्तकारणरूप स्कन्धों (वायु, गला, तालु, जिह्वा, ओष्ठ, घंटा, ढोल, मेघ आदि) के टकराने से जन्य है। अभ्यन्तर कारण स्वयं शब्द रूप परिणमित होने वाली अनन्त परमाणुमयी शब्दयोग्य वर्गणायें हैं। ये शब्द वर्गणायें समस्त लोक में व्याप्त हैं। इस तरह शब्द न तो गुण रूप है, न परमाणु रूप है और न द्रव्यरूप है अपितु पुद्गलद्रव्य की पर्यायविशेष (अनित्यधर्म) है। पर्यायें, द्रव्य से सर्वथा पृथक् नहीं होती हैं। अत: अपेक्षाभेद से शब्द को पौद्गलिक या पुद्गलद्रव्य भी कह सकते हैं। शब्दार्थ-सम्बन्ध की अनित्यता / शब्द और अर्थ में न तो अन्वय-व्यतिरेक सम्बन्ध है और न बौद्धों की तरह तादात्म्य-तदुत्पत्ति सम्बन्ध है। अपितु योग्यतारूप सम्बन्ध है। जैसे ज्ञान में ज्ञापक शक्ति है और ज्ञेय में ज्ञाप्य शक्ति है वैसे ही शब्द में वाचक (प्रतिपादक) शक्ति और अर्थ में वाच्य (प्रतिपाद्य) / शक्ति प्रतिनियत है। इसी वाच्य-वाचक शक्ति का नाम 'योग्यता है। यद्यपि सभी शब्दों में सभी प्रकार के अर्थों को कहने की शक्ति है परन्तु व्यक्तियों के द्वारा प्रतिनियत सङ्केत कर लेने के कारण प्रत्येक शब्द प्रतिनियत अर्थ का ही प्रतिपादन करता है। यही कारण है कि एक ही शब्द का विभिन्न भाषाओं में तथा विभिन्न प्रदेशों में विविध अर्थों में सङ्केत मिलता है, जैसे-'फूल' शब्द हिन्दी भाषा में 'पुष्प' का वाचक है तो अंग्रेजी में 'मूर्ख' का वाचक है / 'कर्कटिका' शब्द मालवा में 'ककड़ी' अर्थ का वाचक है तो, गुजरात में 'योनि' अर्थ का वाचक है। इस तरह सिद्ध है कि शब्दार्थ-सम्बन्ध अनित्य है / प्रयोग, सन्दर्भ आदि के अनुसार उसे अर्थ दिया जाता है। यही कारण है कि देश, काल, भाषा आदि के भेद से शब्दार्थ-सम्बन्धों में भेद पाया जाता है। अर्थापकर्ष (यथा-असुर), -अर्थविस्तार (यथा-स्याही), अर्थसङ्कोच (यथा वास) आदि भाषाविज्ञान के नियम भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं। जैन दृष्टि से सम्प्रेषण और अर्थग्रहण की शक्ति में 'नामकर्म' का क्षयोपशम भी निमित्त कारण होता है। चक्ष में जैसे रूप के प्रकाशन की शक्ति है वैसे ही शब्द में अर्थ के प्रकाशन की शक्ति स्वाभाविक है, परन्तु शब्द सङ्केतग्राही पुरुष को ही अपने अर्थ का ज्ञान कराता है। चूंकि शब्द ज्ञापक है, अत: वह सङ्केत की अपेक्षा से ही अर्थ का बोध कराता है। जो ज्ञापक होता है वह उसी पुरुष को, ज्ञाप्य का ज्ञान कराता है जिसने पहले से ज्ञापक और ज्ञाप्य के सम्बन्ध को जान लिया हो। शब्द और अर्थ का मीमांसकों की तरह नित्य सम्बन्ध नहीं है, अपितु अनित्य सम्बन्ध है-शब्द योग्यतारूप सम्बन्ध से ही अर्थ का प्रतिपादक होता है। यह सम्बन्ध नैयायिकों की तरह 'ईश्वरेच्छारूप' भी नहीं है अपितु प्राणियों के प्रयत्न से जन्य है। यह अर्थबोधकता मात्र शब्द में निहित नहीं है अपितु वक्ता और श्रोता की योग्यता पर भी निर्भर है। यही 282
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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