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________________ पापा- बेटे! ये प्रश्न बहुत गम्भीर हैं। तुमने तो एक साथ कई प्रश्न पूंछ लिए। इसी तरह के अन्य अनेक प्रश्न सम्भव हैं। ये सब स्थितियाँ हमारे पूर्वबद्ध कर्मों के निमित्त से होती है। आज हम जैसे अच्छे या बुरे कर्म करेंगे उनका फल हमें आगे में या अगले जन्मों में मिलेगा। रागद्वेष रूप परिणामों के निमित्त से हमारे अन्दर क्रोध, मान, माया, लोभ आदि रूप परिणति होती है। क्रोधादि का निमित्त पाकर कर्म-परमाणु हमारी आत्मा के साथ मिलकर उसके ऊपर एक आवरण बना लेते हैं जिससे हमारे आत्मीय ज्ञान-सुख आदि गुण प्रकट नहीं हो पाते। ऐसे कर्म मूलरूप में आठ प्रकार के हैं जिनके निमित्त से सुख-दुःख, ज्ञान-अज्ञान, जन्म-मरण आदि परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। इसका यह तात्पर्य नहीं कि सब कुछ पूर्वबद्धकर्मों (भाग्य) के निमित्त से ही होता है। पुरुषार्थ भी उसमें निमित्त बनता है। ये कर्म जब अपना फल देने के लिए तत्पर (उदय को प्राप्त) होते हैं तब उस समय हमारे भावों में यदि वीतरागता के परिणाम होते हैं तो आगे कर्मबन्ध नहीं होता, यदि राग-द्वेषादिजन्य क्रोध, हिंसा आदि अशुभ भाव होते हैं तो पुनः पाप कर्मों का बन्ध होता है और यदि परोपकारादि शुभ भाव होते हैं तो पुण्य कमों को बन्ध होता है। पुण्य कर्मों के निमित्त से ऐश्वर्य, सुख, कीर्ति, ज्ञान आदि की प्राप्ति होती है और पाप कर्मों के निमित्त से दरिद्रता, दुःख, अपकीर्ति, अज्ञान आदि की प्राप्ति होती है। मोक्षावस्था सब कर्मों से पूर्ण रूप से छुटकारा पाने पर मिलती है। इसके लिए हमें प्रथमत: पाप कर्मों से विरक्त होना चाहिए। संदीप- पापा ! आठ कर्म कौन से हैं और उनके कार्य क्या हैं? पापा- बेटे! आत्मा की जानने (ज्ञान) की स्वाभाविक शक्ति को आवृत्त करने में निमित्त कारण ज्ञानावरणीय कर्म है। सब प्रकार के ज्ञान के पूर्व होने वाले दर्शनरूप साक्षात्कारात्मक शक्ति को आवृत्त करने में निमित्त कारण दर्शनावरणीय कर्म है। जो बाह्य आलम्बन के मिलने पर सुख-दुःख का भोग (वेदन) कराने में निमित्त है वह वेदनीय कर्म हैं। यह कर्म सुख-दुःख का वेदन कराने में निमित्त कारण मात्र है, भौतिक सम्पत्ति की प्राप्ति में कारण नहीं, क्योंकि भौतिक सम्पत्ति की प्राप्ति व्यवसाय या पुरुषार्थ से होती है तथा सम्पत्ति के होने पर सुखी होना और न होने पर दुःखी होना ऐसा नियम नहीं देखा जाता है। जिसके रहने पर राग-द्वेषादिरूप मोहभाव हों ऐसे निमित्त कारण को मोहनीय कर्म कहते हैं। यह सभी कर्मों में प्रधान (राजा) है। इसीके कारण हम चाहते हुए भी राग-द्वेष को नहीं छोड़ पाते। इसके हटते ही अन्य कर्मों के आवरण धीरे-धीरे आयु पूरी होने तक हट जाते हैं और आत्मा शुद्ध स्वरूप को पाकर संसार चक्र से सदा के लिए मुक्त हो जाता है। आयुकर्म आत्मा को मनुष्य, देव आदि पर्याय धारण करने में निमित्त है अर्थात् जीव की आयु (शरीर की स्थिरता से मनुष्य आदि के जीवित रहने की समय-सीमा) का निर्धारण आयुकर्म से होता है। विविध प्रकार की शुभाशुभ शरीर की संरचना आदि में निमित्त कारण है नामकर्म। आत्मा के ऊँच और नीच भाव या जाति होने में निमित्त है गोत्रकर्म। आत्मा के दान, भोग आदि रूप भावों के न होने में कारण है अन्तराय कर्म अर्थात् जिस कर्म के प्रभाव से सभी अनुकूलताओं के रहने पर भी कार्यसिद्धि नहीं होती है उसे अन्तराय कर्म कहते हैं। 'दान देने की अभिलाषा रहने पर भी किसी व्यवधान के आ जाने पर दान न दे पाना' यह इसी कर्म के कारण है। यह कर्म ज्ञानावरणादि कर्मों के साथ रहकर वहाँ भी व्यवधान करता है। ये ही आठ कर्म हैं। आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्म प्रति समय बंधते रहते हैं तथा फल देकर झड़ते भी रहते हैं। आयु कर्म के बारे में विशेष बाद में बतायेंगे। मनोरमा- कर्म की यही चर्चा करते रहोगे या बस से नीचे उतरोगे। देखो, हम प्रभाषगिरी पहुँच चुके हैं। पापा- अरे हाँ! हम कर्म-चर्चा में इतने खो गये कि कुछ पता ही नहीं चला। चलो, अब हम लोग उतरें। कर्म-विषयक शेष चर्चा अब हम बाद में करेंगे। ( सभी बस से नीचे उतरते हैं। प्रभाषगिरि में सभी लोग दर्शन, पूजन और भोजन के बाद मंदिर जी के प्रांगण में बैठे हैं) संदीप- पापा। आप कमों के बारे में बतला रहे थे, उनके सम्बन्ध में कुछ विशेष बतलायें। पापा- बेटे तुमने देखा , हमारे जीवन के साथ कर्म छाया की तरह जुड़े हुए हैं। जब तक जीव के साथ कर्म का सम्बन्ध रहता है तब तक वह संसार में परिभ्रमण करता रहता है। हमारी प्रत्येक क्रिया कर्म से प्रभावित होती है। इष्ट के संयोगवियोग से अथवा अनिष्ट के संयोग-वियोग से सुख दुःख की अनुभूति होना, ज्ञान अज्ञान की हीनाधिक अवस्था की प्राप्ति होना, शरीर संरचना की विविधितायें होना, ऊँच नीच कुल में जन्म लेना। स्वर्ग, नर्क, तिर्यंच और मनुष्य गति की प्राप्ति होना, अल्पायु या दीर्घायु पाना, अकाल मृत्यु होना, कार्य सिद्धि में विघ्न आना, संसार के विषयों में मोह बना रहना, धर्म में आस्था न होना, आदि सब कार्य कर्म के आवरण की मौजूदगी अथवा उसके हीनाधिक आवरण के होने पर होते हैं। 251
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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