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________________ नैयायिक (नाश्ता करते हुए)-आप लोग भी तो मंदिरों में महावीर भगवान (तीर्थङ्कर) की पूजा करते हैं और कामनाओं की पूर्ति हेतु उनसे प्रार्थनाएँ करते हैं। यह द्विरंगी चाल कैसी? एक तरफ तो आप ईश्वर का निषेध करते हैं और दूसरी ओर हमारी तरह ईश्वर की उपासना करते हैं। देखिए न ! अभी-अभी माता जी मंदिर से उपासना करके आई हैं। संदीप- पापा जी ! इसका क्या जबाब होगा। पापा - बेटे ! नैयायिक ने बहुत अच्छा प्रश्न किया है। सुनो ! जैनधर्म में ऐसा कोई अनादि ईश्वर नहीं है जो संसार रचना आदि करता हो। यह एक प्राकृतिक नियम है। हम जो ईश्वर (अर्हन्त और सिद्ध) की उपासना करते हैं वह किसी फल की आकांक्षा से नहीं करते। जैनों का ईश्वर केवल सगुणों के चिन्तन का आधार है। उनके सगुणों के चिन्तन से हमारे विचारों में निर्मलता आती है। कहा है 'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी' जिसकी जैसी भावना होती है उसे वैसी ही सिद्धि होती है। विचारों की निर्मलता से पूर्वबद्ध कर्म नष्ट होते हैं और हमें अभीष्ट फल की प्राप्ति ईश्वर के बिना हस्तक्षेप के अनायास हो जाती है जैसे टी0 वी0, टेलीफोन, कम्प्यूटर आदि वैज्ञानिक उपकरण स्विच आन होते ही अपने आप कार्य करना प्रारम्भ कर देते हैं वैसे ही विचारों की वास्तविक निर्मलता से अभीष्ट फल की प्राप्ति अनायास ही हो जाती है। जैनों का ईश्वर ऐसा नहीं है जो संसार के किसी कार्य में रुचि लेता हो, क्योंकि वह पूर्णवीतरागी और आप्तकाम (पूर्ण संतुष्ट) है। एक समय वह ईश्वर भी हमारे आप के जैसा प्राणी था। उसने अपने मन के परिणामों की निर्मलता से अपनी शक्ति और स्वरूप को पहचाना और हमेशा के लिए सांसारिक दुःखों से मुक्त होकर ईश्वर हो गया। हम भी वीतरागता पूर्ण वैसा ही सदाचरण करके ईश्वर बन सकते हैं। जैनों के ईश्वर से तात्पर्य है आत्मा का शुद्ध स्वरूप में स्थित हो जाना। इसीलिए यहाँ प्रत्येक आत्मा को परमात्मा (ईश्वर) कहा जाता है। मनोरमा- स्वामिन ! ईश्वर के बारे में कुछ और बतलायें। पापा- संसार से मुक्ति की साधना करते हुए जब हम ऐसी अवस्था को प्राप्त हो जाते हैं जहाँ से उसी जन्म में पूर्णमुक्ति (विदेह मुक्ति-सिद्धावस्था) अवश्यंभावी हो जाती है तो उसे जीवन्मुक्त या अर्हत् (चार प्रकार के ज्ञानादि गुणों के प्रतिबन्धक घातिया कर्मों से रहित) कहते हैं / ये अर्हत् ही धर्मोपदेश द्वारा जगत् का साक्षात् कल्याण करते हैं क्योंकि ये पूर्णवीतरागी और सर्वज्ञ होते हैं। आयु के पूर्ण होने पर अर्हत् के शरीर का भी जब विसर्जन हो जाता है तो उसे विदेहमुक्त या सिद्ध (घातिया और शेष अघातिया सभी कर्मों से पूर्णमुक्त, अशरीरी अवस्था) कहते हैं। जैनों के यहाँ ये दोनों ही आदर्श पुरुष या ईश्वर या देवाधिदेव आराध्य हैं, अन्य नहीं। ये दु:खों से रहित, अनन्त अतीन्द्रिय आत्मिक सुखों से युक्त, वीतरागी, अपरिग्रही और सर्वज्ञ होते हैं। संसार की सृष्टि आदि से इन्हें कोई प्रयोजन नहीं है क्योंकि वे वीतरागी हैं। वे संसार में अवतार भी नहीं लेते। लोक-व्यवहार में उपचार से उन्हें दुःख भञ्जक कहा जाता है। इसीलिए सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर को मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसके साथ ही हमारे यहाँ भगवान को चढ़ाया गया प्रसाद नहीं खाते क्योंकि वह निर्माल्य है। भगवान् को चढ़ाया गया द्रव्य या प्रसाद अन्य किसी को या गाय आदि को दे दिया जाता है। नैयायिक- अच्छा पापा जी ! आपने कर्मक्षय की बात कही वह कर्म-सिद्धान्त क्या है? बतलायें। पापा- कल जब पिकनिक पर चलेंगे तब वहीं बतलायेंगे। अब समय हो गया है। अभी आवश्यक कार्य से जाना है। (सब चले जाते हैं) [संदीप के घर में पद्यप्रभु के कल्याणकों से पवित्र तथा यमुना नदी के सुरम्य तट पर स्थित प्रभाषगिरि जाने की तैयारी चल रही है। इसी बीच उसके मित्र भी आ जाते हैं। सभी लोग एक मेटाडोर लेकर पिकनिक मनाने तथा फरवरी 1996 में होने वाले पञ्चकल्याणक की तैयारी देखने प्रभाषगिरि प्रस्थान करते हैं।) संदीप- (रास्ते में कुछ लोगों को देखकर) पापा! संसार में कुछ लोग सुखी हैं तो कुछ दुःखी, ऐसा क्यों ? कुछ लोग ज्ञानी हैं तो कुछ अज्ञानी क्यों हैं? कोई अच्छे कुल में और अच्छी जाति में तो कुछ नीच कुल में और निम्न जाति में क्यों जन्म लेते हैं? कोई व्यापार में बहुत श्रम करता है परन्तु उसे लाभ नहीं होता। कोई सामान्य श्रम करके भी बहुत लाभ प्राप्त करता है। कोई सौ वर्ष तक जीवित रहता है तो कोई जल्दी मर जाता है। कोई बीमार रहता है तो कोई स्वस्थ रहता है। कोई पाप कर्म छोड़ना चाहता है परन्तु छोड़ नहीं पाता है। कुछ लोग सुन्दर हैं और हष्ट पुष्ट हैं तो कुछ असुन्दर और दुर्बल क्यों हैं? कोई धनवान है परन्तु सुखी नहीं है। कोई गरीब है परन्तु सुखी है। कोई देव गति में, कोई मनुष्य गति में, कोई पशु गति में, कोई नरक गति में क्यों जन्म लेता है? कोई पुरुष, कोई स्त्री, कोई नपुंसक क्यों? 250
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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