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________________ आचार विचार सम्बन्धी धार्मिक नियमोपनियमों अथवा विधिविधानों में अहिंसा की भावना को ध्यान में रक्खा। यद्यपि अहिंसा का उपदेश प्रायः सभी सम्प्रदायों के धार्मिक महर्षियों ने दिया परन्तु जितनी सूक्ष्मता से भगवान् महावीर ने इसका उपदेश दिया, उतना अन्य किसी ने नहीं। आज अहिंसा के वास्तविक अर्थ को हम भूल गए हैं और किसी जीव को जान से स्वयं नहीं मारना इतने मात्र को अहिंसा मान बैठे हैं। वस्तुतः हिंसा केवल जीवों को जान से स्वयं मारने अथवा मरवाने मात्र से नहीं होती है अपितु मन में सङ्कल्प करने अथवा अनुमोदन करने से भी हिंसा होती है। अत: मन वचन काय से कृतकारिता अनुमोदनपूर्वक हिंसा का त्याग अहिंसा है। अहिंसा का भी मापदण्ड हिंसा का त्यागमात्र नहीं है अपितु अप्रमत्तता और वीतरागता उसकी कसौटी है। इसीलिए ईर्यासमिति (अप्रमत्तभाव-सावधानीपूर्वक) से चलने वाला साधक चींटी आदि की हिंसा हो जाने पर भी हिंसक नहीं माना गया परन्तु ईर्यासमिति के बिना उन्मत्त की तरह चलने वाला चींटी आदि की हिंसा न होने पर भी हिंसक माना गया है। देश के ऊपर शत्रु के आक्रमण करने पर बहुजन हिताय शस्त्र उठानेवाला सैनिक, रोग से कराहते हुए रोगी के रोगाणुओं को नष्ट करनेवाला डाक्टर, परिवार के न्यायपूर्वक पालनपोषण अथवा मानवमात्र के पालनपोषण के लिए खेती करते हुए क्षुद्र जीवाणुओं की हिंसा (आरम्भी हिंसा) करने वाला किसान व्यवहार में हिंसक नहीं माना जाता परन्तु चोरबाजारी, उपसञ्चय आदि के द्वारा सीधे हिंसा न करनेवाला मनुष्य दूसरे मनुष्यों के उत्पीड़न में कारण बनने से घोर हिंसक माना गया है। अत: भगवान् महावीर ने उन प्रत्येक मानसिक वाचिक एवं कायिक क्रियाओं को हिंसा का नाम दिया जिनसे दूसरे जीवों को कष्ट हो, परेशानी हो या बुरा लगे। किञ्च, 'हितं ब्रूयात्, प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्' के सिद्धान्त को गले लगाया। यहाँ इतना विशेष है कि सर्व जनसुखाय की भावना से प्रेरित होकर चोर, डाकू, हत्यारे, जमाखोर आदि दुष्टों को पकड़वाने में राज्याधिकारियों की सहायता करना हिंसा नहीं है अपितु पवित्र कर्तव्य है। जो अपराधी नहीं है उसकी रक्षा करना भी परम धर्म है। यह दूसरी बात है कि जो संसारत्यागी, अरण्यवासी (चतुर्थाश्रमी) साधु हैं वे इन सांसारिक व्यवस्थाओं में रुचि सामान्यतः न लें परन्तु गृहस्थ जो कि अणुव्रती हैं उनका तो यह धर्म है। वीतराग अथवा अप्रमादभाव रहते हुए जो अज्ञानतावश हिंसा होती है वह पापकर्म के आगमन (आस्रव) में हेतु तो है परन्तु विशिष्ट बन्ध में हेतु नहीं है, क्योंकि कर्मबन्ध तभी होता है जब अन्तःकरण में रागद्वेषभाव होता है। जैसे मिट्टी के ढेले जब दीवाल से टकराते हैं तो उनमें यदि आर्द्रता होती है तो वे उस दीवाल से चिपक जाते हैं। अन्यथा टकराकर झड़ जाते हैं। कहा भी है 'उल्लो सुक्खो य दो छूटा गोलया मट्टियामिया। दोवि आवडिया कुड्डे जो उल्लो सोत्थ लग्गई।। उत्तराध्ययन सुत्र, 25.42 द्रष्टव्य है कि यह व्यवस्था कितनी मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक है। लोकव्यवहार में भी देखा जाता है कि यदि कोई अबोध बालक (वीतरागी) कोई अपराध या नुकसान कर बैठता है तो उसे हम माफ कर देते हैं और यदि कोई समझदार व्यक्ति रागद्वेष से प्रेरित होकर अपराध करता है तो उसे हम दण्ड देते हैं। अर्थात् रागद्वेष की भावना की हीनाधिकता पर ही दण्ड अथवा कर्म बन्ध की हीनाधिकता निर्भर करती है। अहिंसा और वीतरागता की भावना से प्रेरित होकर भगवान् ने अनेकान्त और स्याद्वाद का उपदेश दिया। यह एक ऐसा अमूल्य मन्त्र है कि इसे जो स्वीकार करता है वह संशयातीत होकर सर्वत्र आदर प्राप्त करता है। इस सिद्धान्त के वैज्ञानिक एवं तर्कसङ्गत होने पर भी शङ्कराचार्य जैसे बड़े बड़े विद्वानों ने इसे सन्देहवाद समझकर समझने में भूल की है। वस्तुओं का जब हम विभिन्न पहलुओं (दृष्टिकोणों) से विचार करते हैं तो वह हमें निश्चय ही विभिन्न रूपों में दृष्टिगोचर होती है। जैसे यज्ञदत्त का लड़का रमेश अपने पिता की दृष्टि में पुत्र है, अपने पुत्र की दृष्टि में पिता है, बहिन की दृष्टि में भाई है, मामा की दृष्टि में भानजा है, भाभी की दृष्टि में देवर है, पत्नी की दृष्टि में पति है, गुरु की दृष्टि में शिष्य है और शिष्य की दृष्टि में गुरु भी है। इस तरह रमेश में परस्पर विरोधी दिखलाई देनेवाले धर्म अविरुद्ध भाव से रहते हैं / 'रमेश पुत्र ही है अथवा पिता ही है' यह कथन जैसे सर्वथा सत्य नहीं कहा जा सकता, ठीक वैसे ही प्रत्येक वस्तुओं के बारे में एकान्त दृष्टि सत्य नहीं कही जा सकती है। जब हम विभिन्न पहलुओं से वस्तु का विचार करेंगे तो सत्य भी विभिन्न पहलुओं से अलग अलग होंगे। एक ही पहलू से वस्तु अनेकरूप नहीं है अपितु विभिन्न पहलुओं से अनेकरूप है। यदि एक ही पहलू से या एक ही दृष्टि से या एक ही अपेक्षा से वस्तु अनेकरूप हो तो संशय अथवा मिथ्या हो। अतः वस्तु को अनेकान्त (अनेक + अन्त= धर्म) रूप मानना अपरिहार्य हो जाता है। 232
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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