SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम्।। स्थित्या विना न माध्यस्थ्यं तेन सामान्यनित्यता।।, मीमांसाश्लोकवार्तिक, पृ0 619 6. द्रव्यं हि नित्यमाकृतिरनित्या। सुवर्ण: कदाचिदाकृत्या युक्तं पिण्डो भवति, पिण्डाकृतिमुपमृद्य रुचकाः क्रियन्ते, रुचकाकृतिमुपमृद्य कटकाः क्रियन्ते, कटकाकृतिमुपमृद्य स्वस्तिकाः क्रियन्ते, पुनरावृत्तः सुवर्णपिण्ड: पुनरपरया आकृत्या युक्तः खदिराकारसदृश कुण्डले भवतः / आकृतिरन्या अन्या च भवति, द्रव्यं पुनस्तदेव, आकृत्युपमर्दैन द्रव्यमेवावशिष्यते / (पातञ्जल महाभाष्य, 1.1.1; योगभाष्य, 4.13) 7. दर्शन दिग्दर्शन, पृ0 491-496 8. चौदह वस्तुएँ अव्याकृत हैं, माध्यमिकवृत्ति, पृ0 446, दस वस्तुएँ अव्याकृत है, मज्झिमनिकाय, 2.23 9. जैन तर्कवार्तिक, प्रस्तावना, पृ0 14-24 10. अज्ञानं तु सदसदभ्यामनिर्वचनीयं त्रिगुणात्मकं ज्ञानविरोधि भावरूपं यत्किञ्चिदिति / वेदान्तसार, पृ0 14 11. ऋग्वेद नासदीय सूक्त। 12. श्वेताश्वतर उपनिषद्, 3.20 13. ओ. उपनिषद्, 1.8 14. विशेष के लिए देखें- जैनदर्शन, पं. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य, पृ0 597-689 15. अथात्मनः कर्तृत्वादेकस्मिन् काले कर्मत्वासंभवेनाप्रत्यक्षत्वम्। तत्र लक्षणभेदेन तदुपपत्तेः / तथाहि-ज्ञानचिकीर्वाधारत्वस्य कर्तृलक्षणस्योपपत्तेः ___ कर्तृत्वम् / तदैव च क्रियया व्याप्यत्वोपलव्धेः कर्मत्वं चेति न दोषः / लक्षणतन्त्रत्वाद् वस्तुव्यवस्थायाः / (प्रश. व्यो. पृ0 392) 16. सांख्यकारिका, 3 17. तर्कसंग्रह, पृ0 4-6 18. प्रमाणसंग्रह, पृ0 103, अष्टशती (अष्टसस्री, पृ0 206) प्रायश्चित्त तप ['प्रायश्चित्त तप' अपराध-सुधार हेतु एक प्रकार का दण्ड-विधान तथा कर्म-निर्जरा का माध्यम है। यह सभी के द्वारा आचरणीय है। यह हमारी आभ्यन्तर शुद्धि का सशक्त माध्यम है।] जैन दर्शन में आभ्यन्तर तपों की गणना करते समय सर्वप्रथम 'प्रायश्चित्त तप को गिनाया गया है। प्रमादवश या अज्ञानवश हमारे द्वारा बहुत से अपराध हो जाते हैं जिन्हें हम 'प्रायश्चित्त' के द्वारा दूर कर सकते हैं अर्थात् भूलवश या असावधानी से हुए दोषों का शोधन करना प्रायश्चित्त है। यह सर्व विदित है कि जैन दर्शन में आचारशुद्धि पर विशेष बल दिया गया है। अतः जैसे फिल्टर से पानी को शुद्ध किया जाता है वैसे ही ग्रहण किए गए व्रतों में दूषण लगने पर प्रायश्चित्त द्वारा उनका शोधन किया जाता है। अतः अपराध की शुद्धि हेतु दण्ड स्वीकार करना प्रायश्चित्त है। इसके प्रभाव से पूर्वकाल में सञ्चित पापकर्म नष्ट होते हैं तथा आत्मा निर्मल होती है। तीव्र ज्वर में बिना विचारे ग्रहण की गई दोषयुक्त महान् औषधि भी आरोग्यवर्धक नहीं होती उसी प्रकार प्रायश्चित्त के बिना एक पक्ष या मास आदि का उपवास तप भी उपकारक नहीं होता। जैसे स्वच्छ दर्पण में मुख का प्रतिबिम्ब चमकता है वैसे ही सदुरु से दोष के अनुरूप प्रायश्चित्त करने पर तपस्वी चमकता है। मूलाचार में प्रायश्चित्त के आठ नाम गिनाए हैं जो प्रायश्चित्त के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं - पोराणकम्मखवणं खिवणं णिज्जरणं सोधणं धुवणं। पुच्छणमुच्छिवणं छिंदणं त्ति पायच्छित्तस्स णामाई।।363 / / अर्थ- पूर्वोपार्जित कर्मों का 1. क्षपण (नष्ट करना), 2. क्षेपण (दूर हटाना), 3. निर्जरण (निर्जरा करना), 4. शोधन, 5. धावन (धोना), 6. पुंछन (पोंछना), 7. उत्क्षेपण (ऊपर फेंकना), 8. छेदन (टुकड़े करना) प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित्त दो शब्दों के मेल से बना है- 'प्रायः' और 'चित्त'। 'प्रायः शब्द का अर्थ है 'अपराध' और 'चित्त' (चिति धातु से उणादि में निष्ठा अर्थ से बना है) का अर्थ है 'शुद्धि'। अत: जिसके करने से अपराध की शुद्धि होती है उसे प्रायश्चित्त कहते हैं। 'प्रायः' शब्द का अर्थ 'लोक' भी होता है जिसका अर्थ है- जिस क्रिया के करने से लोग (लोक) अपराधी को निर्दोष मानने लगें (प्रायो लोकस्तस्य चित्तं शुद्धिमियर्ति यस्मात् तत्प्रायश्चित्तम्) / यहाँ 'प्रायः' शब्द का अर्थ 216
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy