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________________ व्यावृत्तिज्ञान (भेदज्ञान) का। द्रव्य एक होता है और पर्यायें कालक्रम से अनेक होती हैं। वैशेषिकों की तरह द्रव्य, गुण, कर्म आदि स्वतन्त्र पदार्थ नहीं हैं। सर्वथा अभेद मानने वाले अद्वैतवाद में विवर्त, विकार या भिन्न-प्रतिभास सम्भव नहीं है। 'सत्' सामान्य से जो सब पदार्थों में ऐक्य स्थापित किया जाता है वह व्यवहारार्थ परम संग्रहनय का एकत्व है, जो कि उपचरित है, मुख्य नहीं। शब्द प्रयोग की दृष्टि से एक द्रव्य में विवक्षित धर्म-भेद और दो द्रव्यों में रहने वाला परमार्थ सत्भेद, दोनों भिन्न-भिन्न हैं। पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व और विपक्षासत्व- ये तीनों रूप भिन्न-भिन्न होते हुए भी एक ही हेतु में माने जाते हैं। वहाँ सपक्षसत्त्व से विपक्षासत्व का ग्रहण जैसे नहीं माना जाता है वैसे ही प्रत्येक वस्तु में स्वरूपास्तित्व से पर-नास्तिक का भी ग्रहण नहीं माना जा सकता है। अत: उसका पृथक् कथन आवश्यक है। अन्वय-ज्ञान और व्यतिरेकज्ञानरूप प्रयोजन तथा कार्य भी पृथक्-पृथक हैं। वस्तु में सर्वथा भेद मानने वाले बौद्धों के यहाँ पररूप से नास्तित्व माने बिना स्वरूप की प्रतिनियत व्यवस्था नहीं बन सकती है। प्रतिनियत सन्तान-व्यवस्था से स्वयं सिद्ध है कि वस्तु उत्पाद व्यय की निरन्वय परम्परा मात्र नहीं हैं। शान्तरक्षित परलोक-परीक्षा में ज्ञानादि सन्तति को अनादि-अनन्त स्वीकार करके परलोक की व्याख्या करते हैं - उपादानतदादेयभूतज्ञानादिसन्ततेः। काचिनियतमर्यादावस्थैव परिकीर्त्यते।। तस्याश्चानाद्यनन्तायाः परः पूर्व इहेति च।। (तत्त्वसंग्रह, 1872-73) इस तरह बौद्ध दर्शन सर्वथा एकान्तवादी कैसे हो सकता है? सांख्यदर्शन प्रकृति को परिणामी नित्य मानता है। वह प्रकृति-तत्त्व कारणरूप से एक होकर भी अपने महदादि विकारों की दृष्टि से अनेक है, नित्य होकर भी अनित्य है। योगभाष्य (3.13) में परिणामवाद का अर्थ किया है- 'अवस्थितस्य द्रव्यस्य पूर्वधर्मनिवृत्तौ धर्मान्तरोत्पत्तिः परिणाम:' स्थिर द्रव्य के पूर्वधर्म की निवृत्ति होने पर नवीन धर्म की उत्पत्ति होना परिणाम है। बिना सापेक्षवाद के महदादितत्त्व प्रकृति विकृति उभयरूप कैसे है?16 न्याय-वैशेषिक दर्शन के तर्कसंग्रह में पृथ्वी द्रव्य का निर्वचन करते हुए कहा है 'तत्र गन्धवती पृथ्वी। सा द्विविधा-नित्यानित्या च। नित्या परमाणुरूपा, अनित्या कार्यरूपा'। इसी प्रकार जल, तेजस् और वायु द्रव्यों को नित्यानित्य माना है।” परसामान्य-अपरसामान्य, कालकृत परत्वापरत्व आदि भी सापेक्षता को लिए हुए हैं। अनेकान्त में सम्भाव्य दोषों का निराकरण इस तरह देखा जाता है कि सभी दर्शनों के आचार्यों ने एक ही वस्तु में विरोधी धमों के समन्वयार्थ किसी न किसी रूप में सापेक्षवाद को अवश्य स्वीकार किया है। स्याद्वाद अनेकान्तवाद पर मुख्य रूप से दो दोष (संशय और विरोध) बतलाए जाते हैं। तत्त्वसंग्रह में संकर और श्रीकण्ठभाष्य में अनवस्था दोष भी बतलाए हैं, परन्तु जैन आचार्य अकलङ्कदेव ने सम्भावित आठ दोषों की उपस्थापना करके उनका खण्डन किया है। वे दोष हैं- 1. संशय, 2. विरोध, 3. वैयधिकरण्य, 4. संकर, 5. व्यतिकर, 6. अनवस्था, 7. अप्रतिपत्ति और 8, अभाव।18 एक ही दृष्टि से दो विरोधी धर्म स्वीकृत न होने से विरोध नहीं है। जैसे- वैशेषिक दर्शन में पृथ्वीत्वादि अपर सामान्य स्वव्यक्तियों में अनुगत होने के कारण सामान्य रूप है तथा जलादि से व्यावर्तक होने से विशेष भी है। अत: वस्तु के दोनों धर्म पृथक्-पृथक् दृष्टिकोणों से सर्वथा निश्चित रूप में प्रतीत होने से संशय नहीं है। एक ही अखण्ड वस्तु में अनन्त धर्मों का संकर होने पर भी उनकी प्रतीति दृष्टिभेद से होती है। अत: संकर दोष नहीं है। 'व्यतिकर' का अर्थ है 'परस्पर विषयगमन', यह तभी सम्भव है जब पर्याय और द्रव्य दोनों दृष्टियों से द्रव्य को नित्यानित्य माना जाय, परन्तु ऐसा न मानने से व्यतिकर दोष भी नहीं है। 'द्रव्यदृष्टि से वस्तु नित्य है और पर्याय दृष्टि से अनित्य है' यह निश्चित है, वैयधिकरण्य दोष भी नहीं है, क्योंकि सभी धर्म एक ही आधार में जाने जाते हैं, जैसे एक ही आकाश-प्रदेश में सभी द्रव्यों की सत्ता है। एक धर्म में अन्य धर्म की सत्ता न मानने से अनवस्था दोष भी नहीं है। किञ्च, धर्मों का एक रूप मानने से एकान्तत्व नहीं आता है; क्योंकि वस्तु अनेकान्तरूप है तथा सम्यगेकान्त का अनेकान्त से कोई विरोध नहीं है, धर्म धर्मिभाव सापेक्ष है; क्योंकि जो अपने आधारभूत धर्मी की अपेक्षा धर्म होता है, वह अपने आधेयभूत धमों की अपेक्षा धर्मी हो जाता है। इस तरह प्रमाण से निर्बाध प्रतीति होने के कारण न तो अप्रतीतत्व (अप्रतिपत्ति) दोष है और न अभाव दोष है। अतः स्याद्वाद या अनेकान्तवाद न तो संशयवाद है, न कदाचित्कवाद है, न सम्भवनावाद है, अपितु 214
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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