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________________ (2) अध्वर्यु ऋत्विज - यज्ञों का विधिवत् सम्पादन करना इसका कार्य है। इस विषय के ज्ञान के लिए आवश्यक मन्त्रों का सङ्कलन यजुर्वेद-संहिता में होने से, यह ऋत्विज यजुर्वेद का पूर्णज्ञाता होता था। (3) उद्गाता ऋत्विज् - इसका कार्य है कि उच्च एवं मधुर स्वर से ऋचाओं का गान करे। सामवेद में ऐसी ऋचाओं का सङ्कलन है। अत: यह ऋत्विज् सामवेद का पूर्णज्ञाता होता था। (4) ब्रह्मा ऋत्विज् - यह सम्पूर्ण यज्ञ का निरीक्षण करता है जिससे यज्ञ में किसी प्रकार की त्रुटि न रहे। अत: इसे समग्र वेदों का ज्ञान होना जरूरी था। अथर्ववेद का सङ्कलन इसी ऋत्विज् के निमित्त है क्योंकि वेद तीन ही हैं 'त्रयी वेदाः'। अत: यह ऋत्विज् मुख्यरूप से अथर्ववेद का ज्ञाता होता था। ___ 'यज्ञ' शब्द 'यज्' पूजार्थक धातु से निष्पन्न होता है। अत: 'इज्यतेऽनेनेति यज्ञः' जिसके द्वारा, हवन-पूजन किया जाय उसे यज्ञ कहते हैं। इस प्रकार यज्ञ एक प्रकार का कर्म है, कर्म चाहे शुभरूप हो या अशुभरूप हो दोनों संसार भ्रमण में कारण हैं तथा संसार भ्रमण दुःख का हेतु है। यह सम्पूर्ण संसारचक्र यज्ञ की प्रक्रिया से ही प्रचलित है।" तथा हमारी जो भी क्रियाएँ हैं वे सभी एक प्रकार की यज्ञ क्रियाएँ ही हैं। परन्तु ब्राह्मण ग्रन्थों में प्रचलित 'यज्ञ' शब्द एक विशिष्ट क्रिया का द्योतक है। इन यज्ञों को द्रव्य और भाव के भेद से दो भागों में विभाजित किया जाता है। द्रव्य-यज्ञ के पुन: दो मुख्य भेद हैं - श्रौतद्रव्ययज्ञ और स्मार्तद्रव्ययज्ञ। इनके क्रमश: स्वरूप निम्न प्रकार हैंश्रौतद्रव्ययज्ञः-जिनमें जंगम और स्थावर जीवों की बलि दी जाती है। उन्हें श्रौतद्रव्य-यज्ञ कहते हैं। जैसे अश्वमेध, वाजपेय, ज्योतिष्टोम आदि। ये यज्ञ बहुत खर्चीले, पड़ते थे। अत: साधारण जनता इन यज्ञों को नहीं कर सकती थी। इन यज्ञों में अनेक पशुओं की निर्मम हत्याएं होती थीं। इस तरह धर्म के नाम पर हिंसा का बहुत प्रचार देखकर तत्कालीन तत्त्वमनीषियों ने घोर खण्डन किया। यद्यपि एक, सुनिश्चित धर्म-परम्परा के विरुद्ध जाने का किसी को साहस न होता था परन्तु विरुद्ध विचारों को प्रकट करते हुए भी वेद को प्रमाण मानते रहे वेद को प्रमाण मानने वाले भारतीय दर्शनों में जो परस्पर विरोध है यह उन मनीषियों की चतुरता है। अत: उपनिषदों में तथा भगवान् महावीर और बुद्ध ने इस वैदिक कर्मकाण्ड की तीव्र आलोचना की। भगवान् महावीर और बुद्ध इस वैदिक कर्मकाण्ड, वेद प्रामाण्य के प्रबलतम विरोधी थे तथा उनके स्थान पर अहिंसाप्रधान धर्म का प्रचार करने वालों में श्रेष्ठतम थे। बौद्धों पर याज्ञिक क्रियाकाण्ड की इतनी प्रतिक्रिया हुई कि उन्हें आत्मा शब्द से ही घृणा हो गई। चूंकि आत्मा के निमित्त से स्वर्ग की प्राप्ति के लिए लोगों को प्रलोभित किया जाता था अतः उस शाश्वत आत्मतत्त्व को रागद्वेष की अमरवेल मानकर उसका खण्डन ही कर दिया। जैन और बौद्ध ग्रन्थों में इन यज्ञों के खण्डन में जो तर्कपूर्ण युक्तियाँ प्रदर्शित की गई हैं उन्हें देखकर कोई भी सहृदय व्यक्ति पुनः इन यज्ञों की तरफ देखने का साहस न करेगा। स्याद्वादमञ्जरी में एक कारिका उद्धृत है देवोपहार व्याजेन यज्ञव्याजेन येऽथवा। घ्रन्ति जन्तून् गतघृणा घोरां ते यान्ति दुर्गतिम् // अर्थात् जो लोग देव-प्रसादार्थ अथवा यज्ञ के बहाने घृणा से रहित होकर प्राणियों (जन्तुओं) को हिंसा करते हैं वे घोर अन्धकार से पूर्ण दुर्गति में जाते हैं। वावरि ब्राह्मण का शिष्य पुण्णक भगवान् बुद्ध से निम्न प्रश्न पूछता है, भगवन् ! किस कारण से ऋषियों, मनुष्यों, क्षत्रियों, ब्राह्मणों ने इस लोक में देवताओं के लिए पृथक्-पृथक् यज्ञ कल्पित किए हैं भगवन् ! बतावें। भगवान् बुद्ध - 'जिन किन्हीं ऋषियों, मनुष्यों, क्षत्रियों, ब्राह्मणों ने इस लोक में देवताओं के लिए पृथक्पृथक् यज्ञ कल्पित किए हैं, उन्होंने इस जन्म की चाह रखते हुए जरा आदि से अमुक्त होकर ही किए। पुण्णक-जिन किन्हीं ने यज्ञ कल्पित किए, भगवन् ! क्या वे यज्ञ-पथ में अप्रमादी थे? हे मार्ष, क्या वे जन्मजरा को पार हुए? हे भगवन् ! आप से यह पूछता हूँ। मुझे बतायें। ___भगवान् बुद्ध - वे जो आशंसन करते, स्तोम करते, अभिजल्प करते, हवन करते हैं सो लाभ के लिए कामों को ही जपते हैं। वे यज्ञ के योग से, भव के राग से रक्त हो जन्म-जरा को पार नहीं हुए, ऐसा मैं कहता हूँ। पुण्णक-हे मार्ष! यदिः यज्ञ के योग से, यज्ञों के द्वारा जन्म-जरा को पार नहीं हुए, तो मार्ष, फिर लोक में कौन देव जन्म-जरा को पार हुए ? हे भगवान् ! उसे बतलावें। भगवान् बुद्ध - जिसे लोक में कहीं भी तृष्णा नहीं है, जो शान्त, दुश्चरित रहित, रागादि से विरत, आशारहित है, वह जन्म-जरा को पार कर गया, ऐसा मैं कहता हूँ।14 196
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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