SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (1) श्रमण- श्रम का अर्थ है परिश्रम और वह परिश्रम 'तपस्या' के अर्थ में रूढ़ है। अत: जो अपने श्रम से या तपपुरुषार्थ से उत्कर्ष को प्राप्त करता है वह श्रमण है। भगवती आराधना में श्रमण शब्द की व्युत्पत्ति है 'श्राम्यति तपस्यतीति श्रमणः / श्रमणशब्दस्य पुंसि प्रवृतिनिमित्ततपःक्रिया श्रामण्यम्। (2) शमन् - शान्तिकारक। जो साधु अपने राग-द्वेष आदि चित्त के अशुभ विकारों को भेदविज्ञान के बल से प्रशमित करके आत्मीय अनन्त शक्ति में मग्न होता है वह 'शमन' है। (3) समण 3- जिसका मन समता को लिए हुए है। जो प्राणिमात्र के प्रति समभाव रखता है, विषमता को हटाता है, राग-द्वेषजन्य तुच्छ विचारों को विसर्जित करता है तथा सदा विश्वबन्धुत्व की भावना रखता है, वह 'समण' है। इस तरह श्रम्, शम और सम इन तीनों अर्थों का समावेश श्रमण संस्कृति में विशेषकर जैन श्रमण संस्कृति में पाया जाता है। जैसे- 'श्रम' अर्थ करने पर 'श्रमण' कर्मठता , त्याग, तपस्या, पुरुषार्थ, परिषहजय आदि गुणों के द्वारा आत्मविकास करता है। 'शम' अर्थ करने पर श्रमण परस्पर विरुद्ध विभिन्न मतवादों से विचलित न होता हुआ शान्ति के अमोघशस्त्र को धारण करता है। 'सम' अर्थ करने पर श्रमण विषमता में भी संयम एवं समता को धारण करता है। आज श्रम, शान्ति और समता इन तीनों की धार्मिक क्षेत्र की तरह सामाजिक क्षेत्र में भी महती आवश्यकता है। इससे सामाजिक क्षेत्र में सदाचार, सहनशीलता, क्षमाभाव, साम्यभाव, उदारता, विश्वबन्धुत्व आदि लोककल्याणकारक चिरन्तन संदेश प्रसारित होंगे। श्रम, शान्ति और समता से 'सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः' की भावना मनुष्यों के मन में समुद्भूत होती है। आध्यात्मिक क्षेत्र में निःश्रेयस् की प्राप्ति होती है। बाह्य भोगोपभोग के साधनों की उपलब्धि और सांसारिक ऐश्वर्य की प्राप्ति श्रमण संस्कृति का आनुषङ्गिक फल है। सामान्यतः जैन संस्कृति और बौद्ध संस्कृति ये दोनों श्रमण-परम्परा वाली संस्कृतियाँ हैं, परन्तु दोनों में अन्तर है। जैनों का मूल आधार अहिंसा है। अहिंसा का जितना सूक्ष्म विवेचन जैन संस्कृति में है उतना अन्य किसी भी संस्कृति में नहीं है। पृथ्वी, जल, कीड़े, मकोड़े, पशु, पक्षी, वनस्पति आदि में आत्मदृष्टि से कोई भेद नहीं है क्योंकि प्रत्येक आत्मा परमात्मा है। यही जैनों का साम्यभाव है। अहिंसा के लिए आवश्यक है अपरिग्रहता और वीतरागता। विचारों में भी साम्यभाव हो इसके लिए अनेकान्तवाद्, स्याद्वाद, और नयवाद् के सिद्धान्त जैन श्रमण संस्कृति में स्वीकार किए गये हैं। इस तरह हम देखते हैं कि श्रमण संस्कृति और वैदिक संस्कृति वैदिक काल में एक साथ समभाव से थीं। बाद में उनमें विरोध बढ़ता गया और वह इतना बढ़ गया कि पाणिनि आदि को दोनों में शाश्वतिक विरोध कहना पड़ा। मर्यादापुरुषोत्तम राम और जैन तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि के भाई श्रीकृष्ण ने इन दोनों संस्कृतियों के पारस्परिक विरोध के शान्त्यर्थ श्लाघनीय प्रयत्न किया होगा, जिसके फलस्वरूप दोनों संस्कृतियों में ये दोनों महापुरुष सम्मान के पात्र बने / ईशावास्योपनिषद् और भगवद्गीता में भी प्रवृत्ति और निवृत्तिमार्ग का समन्वय देखा जाता है। श्रमण संस्कृति का प्रभाव वैदिक संस्कृति पर और वैदिक संस्कृति का प्रभाव श्रमण संस्कृति पर पड़ा। वेदान्तदर्शन और उसका आधारभूत उपनिषदर्शन तो श्रमण संस्कृति से पूर्णतः प्रभावित है। यह एक बात विशेषरूप से मननीय है कि श्रमण संस्कृति (जैनबौद्ध दोनों) में सदाचारी साधक को सच्चा ब्राह्मण कहा है तथा ब्राह्मणों के श्रौतसूत्रों में ब्राह्मण भिक्षुओं को 'श्रमण' कहा गया है। बौधायन में मुनि को श्रमण कहा है।4। इस विवेचन से इतना स्पष्ट है कि वैदिक काल में जैन श्रमण संस्कृति थी और उसे सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। कालान्तर में वैदिक और श्रमण संस्कृतियों में विरोध बढ़ता गया और वह इतना बढ़ गया कि पाणिनि जैसे वैयाकरणों को सर्प और नेवला के जन्मसिद्ध वैर की तरह तुलना करनी पड़ी। परन्तु वैदिक संस्कृति में कुछ ऐसे भी ऋषि हुए हैं जिन्होंने श्रमण संस्कृति को अपनी संस्कृति में समाविष्ट कर लिया। श्रमण संस्कृति पर भी वैदिक संस्कृति का प्रभाव पड़ा। वैदिक उल्लेख हमें यह भी विचार करने के लिए प्रेरित करते हैं कि जैन श्रमण संस्कृति और वैदिक संस्कृति के आद्य सूत्रधार भगवान् ऋषभदेव रहे हैं, जिन्हें कालान्तर में स्वधर्मानुसार अपनी-अपनी संस्कृति में समाविष्ट कर लिया गया। ऋषभदेव को वैदिक संस्कृति में शिव या रुद्र के रूप में प्रसिद्धि मिली। भगवान् ऋषभदेव ने कल्पवृक्षों के नष्ट होने पर गृहस्थों को असि, मसि आदि का उपदेश दिया था, जिससे ब्राह्मण संस्कृति पल्लवित हुई और भगवान् की तप:साधना पद्धति से जैन श्रमण संस्कृति विकसित हुई। 1 सन्दर्भसूची - 1. या वः शर्म शशमानाय सन्ति त्रिधातूनि दाशुषे यच्छताधि। अस्मभ्यं तानि मरुतो वि यन्त रयिं ना धत्त वृषणः सुवीरम् / ऋग्वेद 1: 85 : 12. 194
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy