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________________ मतिज्ञान के भेद हैं। आप्तवचनरूप श्रुतज्ञान पृथक् ज्ञान है। इस तरह यदि इस विभाजन को आधुनिक विभाजनपद्धति से देखें तो जैनों के अनुसार प्रत्यक्ष (पारमार्थिक और सांव्यावहारिक), स्मृति, तर्क, प्रत्यभिज्ञा, अनुमान और शब्द ये 6 प्रमाण हैं। इन ज्ञानों के प्रामाण्य और अप्रामाण्य का निश्चय उत्पत्ति की अपेक्षा अभ्यास दशा में स्वतः और अनभ्यास दशा में परत: होता है। ज्ञप्ति की अपेक्षा स्वतः। इस तरह दोनों दर्शनों के साम्य वैषम्य पर संक्षिप्त चिन्तन से यह निष्कर्ष निकलता है कि दोनों ही दर्शन वस्तुवादी हैं। सांख्यदर्शन में बुद्धि को प्रकृति का परिणाम बतलाना, प्रकृति के लिए नर्तकी आदि का दृष्टान्त देना, सृष्टि की व्याख्या में पङ्गु-अन्ध का दृष्टान्त देना आदि कुछ ऐसी बातें हैं जिनका सम्यक् समाधान नहीं मिलता है। जबकि जैनदर्शन में इनका सम्यक् समाधान प्रस्तुत किया गया है। सन्दर्भ सूची - 1. संख्यायन्ते = गणयन्ते येन तत् सांख्यम्। संख्यायते = प्रकृतिपुरुषान्यथारव्यातिरूपोऽवबोधो सम्यग्ज्ञायते येन तत् सांख्यम् 2. व्यक्ताव्यक्तज्ञविज्ञानात् / सांख्यकारिका 2 3. मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्याः प्रकृति-विकृतयः सप्त। षोडशकस्तु विकारो ने प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः / / स0 का0 3 4. असदकरणादुपादानग्रहणात् सर्व सम्भवाभावात् / शक्तस्य शक्यकरणाद् कारणभावाच्च सत्कार्यम्।। स0 का09 5. पुरुषस्य दर्शनार्थ कैवल्यार्थं तथा प्रधानस्य। पङ्ग्वन्धवदुभयोरपि संयोगस्तत्कृतः सर्गः // सां. कां. 21 6. सांख्यकारिका 10-13 7. सांख्यकारिका 12, 13 8. वही 9. वही 10. सांख्यकारिका 64 11. सांख्यकारिका 18 12. सांख्यकारिका 23 13. दुःखत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदभिघातके हेतौ। दृष्टे साऽपार्था चेन्नैकान्तात्यन्ततोऽभावात् / / सां0 का0 1 दृष्टवदानुश्रविक: स ह्यविशुद्धिक्षयातिशययुक्तः / तद्विपरीतः श्रेयान् व्यक्ताव्यक्तज्ञविज्ञानात् / / सां0 का 2 14. सांख्यकारिका 62, 63 15. सांख्यकारिका 59 सांख्य और जैनदर्शन में ईश्वर 'ईश्वर' शब्द को सुनते ही हमारे मन में यह विचारधारा आती है कि इस जगत् को बनाने वाला, पालन करने वाला, संहार करने वाला, हमारे पाप - पुण्य कर्मों का फल देने वाला, जीवों पर अनुग्रहादि करने वाला, सर्वेश्वर्यशाली, अनादि मुक्त, सर्वशक्तिसम्पन्न, अनन्त आनन्द में लवलीन, व्यापक तथा चैतन्यगुणयुक्त एक प्रभु है जिसकी इच्छा के बिना इस जगत् का पत्ता भी नहीं हिल सकता है, यह आत्मा से पृथक् तत्त्व है। ऐसा ईश्वर भारतीय दर्शन में केवल न्याय दर्शन ही स्वीकार करता है। अन्य भारतीय दार्शनिक जिन्होंने ईश्वर को स्वीकार किया है उनकी मान्यता कुछ भिन्न है। ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी दर्शन परम्परायें भारतीय दर्शन में चार्वाक, बौद्ध, जैन, सांख्य, वैशेषिक और मीमांसा मूलत: अनीश्वरवादी दर्शन माने जाते हैं। परन्तु परवर्ती काल में ये दर्शन (चार्वाक को छोड़कर) भी किसी न किसी रूप में ईश्वरवादी बन गये। इनका ईश्वर वैसा 188
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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