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________________ का प्रत्येक वस्तु में कमोबेश समावेश होने से प्रत्येक वस्तु सुख, दुःख और मोह की जनक है। पुरुष का स्वरूप - पुरुष चैतन्य स्वरूप है। न्याय-वैशेषिक दर्शन की तरह चेतना का पुरुष से पृथक् अस्तित्त्व नहीं हैं। इसके अतिरिक्त यह साक्षी (द्रष्टा), निस्त्रैगुण्य (निर्गुण), उदासीन, अकर्ता, अभोक्ता, निष्क्रिय, निरवयव, माध्यस्थ, उदासीन, केवल, अपरिणामी, नित्य और स्वयम्भू (किसी से उत्पन्न न होना) भी है। इसमें कर्तृत्व और भोक्तृत्व धर्म बुद्धि (महत् = जड़तत्त्व) के कारण आरोपित हैं। जन्म-मरण का भेद होने से, सबकी युगपत् प्रवृत्ति न होने से और तीनों गुणों की विषमता के कारण पुरुष संख्या में अनेक हैं। परन्तु स्वरूप की दृष्टि से सब एक जैसे हैं। ज्ञान प्रक्रिया और प्रमाण- सांख्यदर्शन के अनुसार सर्वप्रथम इन्द्रियों का विषय के साथ सम्बन्ध होता है। पश्चात् (इन्द्रिय व्यापार के बाद) सङ्कल्प-विकल्प रूप मन का व्यापार होता है। तदनन्तर 'यह मेरे लिए है ऐसा अहङ्कार का व्यापार होता है पश्चात् बुद्धि का व्यापार होता है जिसमें वह विषय के आकार को धारण करती है। बुद्धि के जड़ रूप होने से उसे स्वतः ज्ञान नहीं होता परन्तु जब उसमें पुरुष का प्रतिबिम्ब पड़ता है तो उसमें ज्ञानोदय होता है। यह ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान है और बुद्धिवृत्ति या चित्तवृत्ति उस ज्ञान का साधन होने से प्रत्यक्ष प्रमाण है। इसके अतिरिक्त अनुमान और आप्तवचन (शब्द या आगम) इन प्रमाणों को मिलाकर कुल तीन प्रमाण सांख्यदर्शन में स्वीकृत हैं। ज्ञान के प्रामाण्य और अप्रामाण्य का निश्चय 'स्वतः' होता है। मुक्ति-सांसारिक जीवन सांख्यदर्शन के अनुसार तीन प्रकार के दुःखों से अभिभूत है-13 (1) आध्यात्मिक दुःख - ये दो प्रकार के हैं-वात, पित्त, कफ आदि से जन्य शारीरिक दुःख और काम, क्रोध आदि से जन्य मानसिक दुःख। (2) आधिभौतिक दुःख- भौतिक पदार्थों से जन्य दुःख। जैसे सर्प का काटना, धन का नष्ट होना आदि। (3) आधिदैविक दुःख - दैवी विपत्तियाँ। जैसे-भूकम्प आना, भूत-प्रेत बाधा होना, अतिवृष्टि-अनावृष्टि। इन्हें दूर करने के यद्यपि लौकिक और वैदिक उपाय हैं परन्तु उन उपायों से आत्यन्तिक दुःखनिवृत्ति सम्भव नहीं है। इनसे निवृत्ति तभी सम्भव है जब पुरुष। (आत्मा) और प्रकृति (शरीरादि) का भेद ज्ञान हो। पुरुष अज्ञान के कारण प्रकृतिजन्य बुद्धि तथा शरीरादि के सुख-दुःखादि धर्मों को अपना समझता है। कर्तापना, भोक्तापना आदि ये सब प्रकृति (बुद्धि, शरीरादि) के धर्म हैं, आत्मा (पुरुष)के नहीं, इस प्रकार का भेद-ज्ञान (विवेकज्ञान) कैवल्यप्राप्ति है और यही जीवन्मुक्ति है क्योंकि भेदज्ञान हो जाने पर प्रकृति के धर्म का पुरुष पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वह सदा के लिए दु.खों से मुक्त हो जाता है। प्रारब्ध कर्मवशात् कुछ समय के लिए विशुद्ध ज्ञान के बाद भी पुरुष का देह धारण किए रहना उसकी जीवन्मुक्तावस्था है पश्चात् प्रारब्धकर्मों के क्षीण होते ही वह देह को छोड़कर विदेह मुक्त हो जाता है। मुक्ति हो जाने के बाद वह शुद्ध चैतन्यावस्था में रहता है, वहाँ न दुःख है, न सुख और न ज्ञान।। तुलना - (1) मूल तत्त्व (द्रव्य) सम्बन्धी-सांख्यदर्शन की तरह जैनदर्शन में भी जड़ और चेतनरूप दो प्रकार के मूल तत्त्व स्वीकार किए गए हैं परन्तु जैनदर्शन में जड़ तत्त्व के स्वतन्त्र पाँच भेद हैं जिनका किसी एक तत्त्व से उद्गम नहीं हुआ है। अत: दो प्रकार के तत्त्वों (द्रव्यों) को स्वीकार करके भी जैनदर्शन में कुल छ: तत्त्व हैं पुद्गल (रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से युक्त अचेतन द्रव्य), धर्म (गति में सहायक द्रव्य), अधर्म (स्थिति में सहायक द्रव्य), अकाश (स्थान देने वाला द्रव्य), काल (परिवर्तन में हेतु भूत) और आत्मा (चेतन जीव)। इनमें आत्मा (पुरुष) को छोड़ कर सभी अचेतन हैं। यहाँ पर हम देखते हैं कि सांख्यदर्शन में प्रकृति के रज और तमस् गुणों से क्रमश: गति और स्थिति का काम लिया गया है परन्तु जैनदर्शन में इसके लिए दो पृथक् तत्त्व स्वीकार किए गए हैं। इसके अतिरिक्त सांख्य के रजस् और तमस् गुण प्रेरक कारण हैं जबकि जैनदर्शन में धर्म और अधर्म तटस्थ कारण हैं, प्रेरक नहीं। 'आकाश' जिसे सांख्य ने शब्दतन्मात्रा से जन्य बतलाया है उसे जैनदर्शन परिणामी नित्य पृथक् तत्त्व मानता है। इसके अतिरिक्त 'शब्द' को जैनदर्शन में पुद्गल की पर्याय (परिणाम) माना गया है। परिवर्तन में हेतुभूत 'काल' द्रव्य को जौनदर्शन में स्वतन्त्र तत्त्व माना गया है जबकि सांख्यदर्शन में 'काल' बाह्यार्थ के व्यवहार का सम्बन्ध मात्र है जो सम्बद्ध वस्तुओं से पृथक् नहीं है। सृष्टिकर्ता ईश्वर को दोनों ही दर्शन स्वीकार नहीं करते। सांख्य में सृष्टि के पीछे प्रकृति और पुरुष का प्रयोजन है जबकि जैन-दर्शन में ऐसा कोई प्रयोजन नहीं है अपितु वस्तु का स्वभाव वैसा माना गया है। सांख्य में प्रकृति से परिणामी नित्य है और उसमें स्वरूप और विरूप परिणमन होते हैं जैनदर्शन में वैसी ही परिणामीनित्यता तथा स्वरूप तथा विरूप 186
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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