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________________ करता है। यह मन पञ्चेन्द्रिय जीवों में ही सम्भव है। जैनदर्शन में मन की कल्पना विशेष प्रकार से की गई है। इस तरह जैन दर्शन में आत्मा के विविध रूपों का विस्तार से चिन्तन किया गया है और उसे वेदान्त की तरह ज्ञानरूप माना गया है। इसीलिए मुक्तावस्था में ज्ञान, सुख आदि गुण उसके साथ अभिन्न रूप से रहते हैं। उपसंहार इस तरह इन सभी दर्शनों में जो आत्मतत्त्व का चिन्तन किया गया है उनमें चार्वाक और बौद्धों को छोड़कर सभी शरीर आदि से भिन्न आत्मा को स्वीकार करते हैं। कहीं चैतन्य उसका स्वरूप है, कहीं आगन्तुक धर्म, कहीं कूटस्थ नित्य है तो कहीं परिणामी नित्यानित्य। कहीं अणुरूप है तो कहीं व्यापक या शरीर परिमाण / कहीं ईश्वर या ब्रह्म का अंश है तो कहीं ब्रह्म का विवर्त। कहीं मुक्तावस्था में अनन्त ज्ञान और सुख है तो कहीं ज्ञान और सुख दोनों का सर्वथा अभाव या केवल दु:खाभाव या शून्यता है। कहीं कर्ता और भोक्ता है तो कहीं अपने कर्तृत्व और भोक्तृत्व के लिए स्वतन्त्र नहीं है। कहीं एक है तो कहीं अनेक / वह शरीर से भिन्न है, अरूपी है तथा चैतन्य के साथ उसका या तो गुण-गुणीभाव सम्बन्ध है या स्वयं चैतन्यरूप है। इस विषय में सभी आत्मवादी दर्शन एकमत हैं। आत्मा को चैतन्यरूप तथा ज्ञानरूप मानने में ही समस्याओं का समाधान है अन्यथा इसे मानने का कोई मतलब नहीं है। इसी तरह संख्या में अनेक, शरीर-परिमाण, सूक्ष्म, परिणामी नित्य और अरूपी मानना भी आवश्यक है। किसी न किसी रूप में सभी आत्मवादी दर्शन और तन्त्रवादी इससे सहमत हैं यदि कुछ अन्तर है तो अपेक्षाभेद का / मुक्तावस्था में स्व-स्वीकृत सिद्धान्तानुसार सभी ने आत्मा की शुद्ध स्व-स्वरूपोपलब्धि को माना है। विज्ञान इस विषय में निरन्तर खोज कर रहा है। परन्तु अभी तक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा है। सन्दर्भ सूची 1. सर्वदर्शनसंग्रह पृ0 4-8; द्रष्टव्य भारतीय दर्शन, बलदेव उपाध्याय, शारदा मन्दिर, वाराणसी 1957, पृ0 135 / / 2. किण्वादिभ्यो मदशक्तिवद् विज्ञानम्। जडभूतविकारेषु चैतन्यं यत्तु दृश्यते। ताम्बूल-पूगचूर्णानां योगाद् राग इवोत्थितम्॥ सर्वसिद्धान्त संग्रह, 2/7 3. कृत-प्रणाशाकृतकर्मभोग-भवप्रमोक्ष-स्मृतिभङ्गदोषान्। उपेक्ष्य साक्षात् क्षणभङ्गमिच्छन् अहो महासाहसिक: परोऽसौ।। अन्ययोगव्ययच्छेदद्वात्रिंशिका, आचार्य हेमचन्द्र, श्लोक 18 4. तदत्यन्त-विमोक्षोऽपवर्गः / न्यायसूत्र 1.1.22 5. स्वरूपैकप्रतिष्ठान: परित्यक्तोऽखिलैर्गुणैः / ऊर्मिषट्कातिगं रूपं तदस्याहुर्मनीषिणः / संसारबन्धनाधीनदुःखक्लेशाद्यदूषितम् // न्यायमञ्जरी, पाण्डुरङ्ग, बम्बई 1933, पृ0 77, 6. वरं वृन्दावने रम्ये शृगालत्वं वृणोम्यहम्। वैशेषिकोक्तमोक्षस्तु सुखलेशविवर्जितात्।। स०सि०सं०, पृ0 28 मुक्तये यः शिलात्वाय शास्त्रमूचे सचेतसाम् / / गोतमं तमवेक्ष्यैव यथा वित्थ तथैव सः।। नैषधचरित, 17.75 7. साक्षात्कारे सुखादीनां कारणं मन उच्यते। अयोगपद्यात् ज्ञानानां तस्याणुत्वमिहेष्यते / / भाषापरिच्छेद, कारिका 85 8. सांख्यकारिका, कारिका 18 9. तस्मान्न बध्यते नापि मुच्यते नापि संसरति कश्चित् / संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः / / 62 // न परिस्पन्द एवैक: क्रिया नः कणभोजिवत् / / श्लोकवार्तिक, पृ0 707 11. चिदंशेन द्रष्ट्रत्वं सोऽयमिति प्रत्यभिज्ञा, विषयत्वं च अचिदंशेन / ज्ञानसुखादिरूपेण परिणामित्वम् / स आत्मा अहं प्रत्ययेनैव वेद्यः / सदानन्द, अद्वैतब्रह्मसिद्धिः। 177
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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