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________________ है-विज्ञानाकल्प, प्रलयाकल्प और सकल। जीवों के तीन भाव हैं- 1. पशुभाव-जिनमें अविद्या का आवरण न हटने से अद्वैत ज्ञान का लेशमात्र भी उदय नहीं है। इनकी मानसिक अवस्था पशुभाव है। ये संसार मोह में बँधे होने के कारण अधम पशु हैं। सत्कर्मपरायण-भगवद् भक्त उत्तम पशु हैं। 2. वीरभाव- जो अद्वैतामृत की कणिका का आस्वादन करके अज्ञान-रज्जु को कुछ मात्रा में काटकर कृतकार्य होते हैं, वे वीरभाव में हैं। 3. दिव्यभाव- जो द्वैतभाव हटाकर अद्वैतानन्द का आस्वादन करते हैं। ये उपास्य देवता की सत्ता में अपने को लीन कर देते हैं। 9. पाञ्चरात्र दर्शन (वैष्णव तन्त्र दर्शन) इस मत में जीव स्वभावतः सर्वशक्तिशाली, व्यापक तथा सर्वज्ञ है परन्तु ईश्वर की तिरोधानाशक्ति के कारण जीव अणु, अकिञ्चित्कर और किञ्चिज्ञ हो जाता है। ईश्वर जीवों की दीन-हीन दशा को देखकर करुणावश उनपर करुणा की वर्षा करते हैं। 10. शाक्त-तत्र दर्शन शाक्तधर्म का उद्देश्य जीवात्मा (उपासक) की परमात्मा (उपास्य) के साथ अभेदसिद्धि है। यह अद्वैतवाद का साधनमात्र है। सच्चा शाक्त वही है जो 'मैं ही ब्रह्म हूँ, सच्चिदानन्द स्वरूप हूँ तथा नित्यमुक्त स्वभाव वाला हूँ ऐसा विचार करता है। कुछ शाक्त वेदानुयायी हैं और कुछ वेद बाह्य हैं। कुछ शाक्तों के वामाचारी (घृणिताचारी) होने से शाक्त बदनाम हैं अन्यथा शाक्तों में परब्रह्म सर्वज्ञ, शिव, स्वयंज्योति, निष्फल, अनादि-अनन्त, निर्विकार तथा सच्चिदानन्द रूप है। जीव अग्नि-स्फुलिङ्गवत् उससे जन्य है। 11. जैन दर्शन इस दर्शन में शरीर, मन, प्राण आदि से सर्वथा भिन्न चैतन्य को आत्मा कहा गया है। शुद्ध आत्मा को अनन्त चतुष्टय (अनन्त सुख, अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन) से सम्पन्न माना गया है। संसारावस्था में आठ प्रकार के कर्मों से आवृत्त होने के कारण उसके चारों विशेष गुण आंशिक रूप से प्रकट होते हैं। जब आत्मा कर्मों के आवरण को तप-साधना के द्वारा पूर्णरूपेण हटा देता है तो उसके ये चारों विशेष गुण पूर्ण रूप से प्रकट हो जाते हैं। संसारावस्था में आत्मा के ये गुण उसी प्रकार तिरोहित रहते हैं जिस प्रकार बादलों के द्वारा सूर्य का प्रकाश तिरोहित हो जाता है और बादलों के हटने पर सूर्य का पूर्ण प्रकाश प्रकट हो जाता है। एकेन्द्रियादि जीवों की सुषुप्ति आदि सभी अवस्थाओं में ज्ञानादि गुणों का उसके साथ कभी भी अभाव नहीं होता है। अतः कहा है उपयोग जीव का लक्षण है और वह दो प्रकार का है- ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। जीवों की राशि अनन्त है और उसमें परिणामी-नित्यता (उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य) पायी जाती है। इसमें ऊर्ध्वगमन स्वभाव माना जाता है। अत: जीव मुक्त होने पर लोकान्त तक ऊर्ध्वगमन करके स्थिर हो जाता है। अरूपी होने से वह हमारी इन्द्रियों के द्वारा देखा नहीं जा सकता। निश्चय की दृष्टि से आत्मा सदा शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, अकर्ता और अभोक्ता है परन्तु संसारावस्था में व्यवहार दृष्टि से वह कर्ता, भोक्ता आदि है। उसे जो शरीर प्राप्त होता है तदनुरूप हो जाता है। इसीलिए उसे शरीर-परिमाण कहा गया है, न व्यापक और न अणु। मुक्तावस्था में शरीर का अभाव हो जाता है परन्तु वह अपने पूर्व शरीर के आकार को नहीं छोड़ता है। सामान्य से सभी जीवों का आकार लोकाकाश का असंख्यातवाँ भाग कहा गया है। सङ्कोच-विकास शक्ति के कारण वह छोटे-बड़े शरीर में रह सकता है। वह सूक्ष्म और अरूपी भी है। मृत्यु के बाद भी संसारावस्था में उसके साथ कार्मण और तैजस् ये दो सूक्ष्म शरीर अवश्य रहते हैं। ज्ञानादि गुण आत्मा से कभी पृथक् नहीं होते हैं अतः उन दोनों में कोई भेद नहीं है फिर भी व्यवहार से (द्रव्य-गुण के भेद से) उनमें भेद किया जाता है। न्याय-वैशेषिक दर्शन की तरह ज्ञान और आत्मा में सर्वथा भेद नहीं है। अनेकान्तवादी दर्शन में अपेक्षाभेद से भेदाभेदकत्व बन सकता है। इसी तरह आत्मा बौद्धों की तरह क्षणिक तथा वेदान्तियों की तरह सर्वथा नित्य नहीं है परन्तु अपेक्षाभेद से नित्यानित्यात्मक है। मुक्त होने पर अशरीरी हो जाता है परन्तु मुक्तिपूर्व के शरीर का आकार (कुछ न्यून) बना रहता है। कर्म सम्बन्ध न होने से उनका सङ्कोच-विकास नहीं होता है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और वनस्पति में भी जीवत्व की सत्ता मानी जाती है। पृथ्वीकायिक जीवों का शरीर पृथ्वी होता है, जलकायिक जीवों का शरीर जल। ये जीव एकेन्द्रिय होते हैं और इसके आगे द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पञ्चेन्द्रिय होते हैं। कोई नित्य ईश्वर नहीं है और जिन्हें ये ईश्वर मानते हैं वे वीतरागी होने से न तो क्रोधादि करते हैं और न कृपादि करते हैं। ये सांख्य दर्शन की तरह साक्षी मात्र होते हैं। सूक्ष्मता और अरूपता के कारण एक अणुरूप स्थान में भी अनन्त जीव रह सकते हैं। मन को इन्होंने जड़ (पुद्गल) स्वीकार किया है। यह मन अणुरूप है और चैतन्य आत्मा के सम्पर्क से चेतनवत् कार्य 176
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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