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________________ जाए। सिद्ध-सारस्वत शादी के कुछ समय बाद मेरे पिताजी ने मनोरमा बहू को मेरे पास वाराणसी भेज दिया। मेरे पास रहकर मनोरमा ने डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त करके भी सर्विस नहीं की और बच्चों का भविष्य बनाने का रास्ता चुना। समय मिलने पर धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों में सक्रिय योगदान दिया। आज भी इस दिशा में मनोरमा जी सक्रिय हैं। इधर मनोरमा की माता जी देवरी, वारासिवनी बांदकपुर, दमोह में अध्यापन कार्य करते हुए सेवानिवृत्त हो गई। दमोह में चारों ओर से जैन मन्दिरों से घिरा हुआ उनका आवास था। निश्चयमार्ग में आस्था होने के बाद भी व्यवहार नय से पूजा, व्रतविधान, तीर्थयात्रा आदि में सतत लगी रहती थीं। श्रावक की प्रतिमायें तो नहीं ली थीं परन्तु ब्रह्मचर्य प्रतिमा तक के व्रत पालती थीं, धर्माचारण करती थीं, सोला करती थीं तथा कुआ का ही प्रासुक (उबला हुआ) जल लेती थीं। मर्यादा के आटा, मसाला आदि लेती थीं। स्वयं सब कार्य करती थीं। अंतिम सांस लेते समय भी देवदर्शन और उपवास पूर्व 14 मार्च 2014 को शरीर छोड़ा किसी से सेवा नहीं कराई। हम दोनों वाराणसी में थे और वह दमोह में थीं। हम लोग सुनते ही टैक्सी लेकर आए और उनका अंतिम संस्कार विधिविधान पूर्वक किया। हमारी योजनाएँ(1) हमारी सबसे प्रबल इच्छा है कि एक ऐसा जैन विद्यापीठ बने जहाँ जैन दर्शन के विविध विषयों का आधुनिक विज्ञान तथा जैनेत्तर धर्म-दर्शन की मान्यताओं के साथ तुलनात्मक चिन्तन करके जैन दर्शन के नवनीत को परिपुष्ट किया जाए। इसके लिए सभी आधुनिक वैज्ञानिक संसाधनों का उपयोग किया जाए। जैन दर्शन के प्रत्येक विषय के विशेषज्ञों की एक सूची बनाई जाए और उसमें बिना भेदभाव के उनको तत्तत् कमेटियों में रखा जाए। वे अपने विषय की गवेषणा करके एक आलेख तैयार करें इसके बाद जैनेतर विषयों के विशेषज्ञों को बुलाकर उसका तुलनात्मक (साम्य-वैषम्य आदि) विवरण लिपिबद्ध किया जाए। इसके बाद आधुनिक विज्ञान वेत्ताओं (वनस्पति विज्ञान, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, मेडिकल विज्ञान, शरीर विज्ञान आदि के विषय विशेषज्ञों) को बुलाकर उनके साथ अनुचिन्तन किया जाए। इसके लिए उन्हें यथासम्भव उचित पारिश्रमिक दिया जाए। इसके बाद जैन धर्म-दर्शन के विषयों की प्रामाणिक विवेचना प्रकाशित की जाए। इतर विद्वानों के मन्तव्यों को भी आमन्त्रित किया जाए। इस तरह जैन दर्शन की प्रामाणिकता को सिद्ध करेंगे तो इसका प्रभाव (प्रभावना अङ्ग सयग्दर्शन का) जन-जन के मन-मस्तिष्क पर पड़ेगा। आलेखों के प्रकाशन के साथ उनका आधुनिक संयंत्रों की सहायता से जीवंत प्रदर्शन भी किया जाए ताकि जन-जन पर गहरा असर हो। (2) मैंने कुछ ऐसी ही एक योजना गुणस्थान मन्दिर की बनाई थी। कई समर्थ मुनियों आदि को बतलाई भी थी। मुनि श्री प्रमाणसागर ने उसे पूरा करने का वचन दिया और उसे गुणयतन के रूप में विकसित करा रहे हैं। यह एक अर्न्तराष्ट्रीय योजना है जिसे प्रत्येक व्यक्ति जानना चाहेगा। मैं प. पू. मुनि श्री प्रमाणसागर जी को अन्तःकरण से नमोऽस्तु करता हूँ। (3) जैन पूजा विधानों की पुस्तकों में बहुत अशुद्धियाँ छपी हैं जिससे पाठक वैसा ही पढ़ते हैं, अर्थ पर विचार नहीं करते। पद्यों में तो शब्दों की शुद्धता तुकबन्दी में विखण्डित है। अतः शुद्ध सार्थ जिनवाणी का प्रकाशन करना चाहता हूँ। हमारे समाज में जो अज्ञानता के कारण कुछ कुरीतियों ने घर कर लिया है, हमें स्याद्वाद-अनेकान्तवाद के माध्यम से आगमानुकूल उन्हें दूर करना चहिए और पूर्वाग्रहों को त्याग देना चाहिए। इस तरह समाज को एकता के सूत्र में पिरोया जा सकता है। धार्मिक और लौकिक क्रियाओं की जहाँ तक संभव हो आलोचना न की जाए। अहिंसा, अपरिग्रह और वीतरागता की जिससे वृद्धि हो या अधिक से अधिक अनुपालन हो उसे स्वीकार करना चाहिए। जीवन की दिशा बदलने वाले 10 निमित्त - (1) धनाढ्य लोगों की संगति से जहाँ गलत राह पकड़ना आसान हो रही थी मेरे पिताश्री तथा प.पू.गुरुवर्य पं. जगन्मोहन लाल शास्त्री के प्रयत्न से कटनी विद्यालय में प्रवेश हुआ। (2) वह छोटा बालक जो मुझे कटनी में गलत राह पर जाने से रोकने में निमित्त बना। (3) मोराजी सागर में पं. दयाचन्द जी द्वारा तृतीया विभक्ति के एकवचन में हलन्त करने पर वेंत की सजा देना तथा जैनन्याय तीर्थ करना। (4) बी. ए. द्वितीय वर्ष में मेरिट में चतुर्थ स्थान पाना जो मुझे मेरिट में और आगे बढ़ने की प्रेरणा में निमित्त बना। फलस्वरूप फाईनल में द्वितीय स्थान मिला। आगे पढ़ने की चाह बढ़ गई। (5) रिसर्च करते समय मेरे निर्देशक गुरु श्री सिद्धेश्वर भट्टाचार्य द्वारा जैनदर्शन तथा मीमांसा दर्शन के पारिभाषिक शब्दों 147
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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