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________________ सिद्ध-सारस्वत महाराज जी के समक्ष जाक वाचन भी किया। अध्यक्ष की विचारधारा निश्चयावलम्बी होने से सहयोग नहीं मिला फिर भी मैंने अपने स्तर पर कटनी, इलाहाबाद, वाराणसी आदि स्थानों पर संगोष्ठियाँ आयोजित की। प्रतियोगितायें कराई तथा डॉ. प्रेमचन्द जी इलाहाबाद के सहयोग से 'भारतीय संस्कृति एवं साहित्य में जैनधर्म का योगदान' स्मारिका भी प्रकाशित की। विद्वत् परिषद् के दुर्भाग्य से आपसी खींचतान के कारण 2006 में चुनाव के समय दो भागों में बट गई। मैंने बहुत चाहा कि एक हो जाए परन्तु पद लोभ के दुराग्रह के कारण संभव न हो सकता। मैंने दोनोमं में जाना बन्द कर दिया परन्तु भारिल्ल जी की परिषद् में मुझे उपाध्यक्ष वा कार्यकारी अध्यक्ष बनाए रखा। अन्त में मैं एकता होते न देख पुरानी मुनिभक्त परिषद् से जुड़ गया क्योंकि वहा मेरी विचारधारा मेल खाती थी। जीवन की कुछ प्रमुख घटनायें(1) कैसे जीवन की दिशा बदली (एक अबोध बालक का प्रभाव) मैं जब कटनी के जैन शान्ति निकेतन विद्यालय के छात्रावास में रहकर पढ़ाई कर रहा था। मैं 12-13 वर्ष का था (सन् 56-57) छात्रावास में बड़े छात्र जुआ खेलते थे तो मैं भी वहाँ खड़ा होकर देखा करता था। एक दिन लोभ कषयवश मैं भी पैसे लगाकर खेलने लगा। परिणाम स्वरूप 5-10 रुपया जीत गया जिससे लालच बढ़ गया और दूसरे दिन जीती राशि हार गया तो मैंने सोचा अब नहीं खेलूँगा। संयोग से उसी रात्रि प्राचार्य पं. जगन्मोहन लाल शस्त्री ने चार छात्रों को जुआ खेलते हुए रंगे हाथों पकड़ लिया और चारों को छात्रावास से बाहर का रास्ता दिखा दिया। इसका मेरे ऊपर तीव्र असर पड़ा। मैंने भगवत्-कृपा मानी, अन्यथा वहाँ देखने पर भी सजा मिल सकती थी। उसी समय उन छात्रों की संगति में बहुत मना करने पर भी उन्होंने सिगरेट पिला दी। मेरा सिगरेट के प्रति जो भय था वह चला गया क्योंकि सिगरेट पीने से मिचली वगैरह नहीं आई। दूसरे या तीसरे दिन मैंने बाजार से एक सिगरेट खरीदी और एकान्त में पीने लगा। वहाँ एक छोटे बालक द्वारा टोके जाने पर मुझे बहुत गुस्सा आया तथा ग्लानि भी हुई और मन्दिर में जाकर नियम लिया कि पाँच वर्ष तक न तो जुआ खेलूंगा, न शराब पिऊंगा, न सिगरेट आदि का नशा करूंगा। यहीं से जीवन की दिशा बदल गई। उस बालक ने देवदूत का कार्य किया। यद्यपि उस समय यह नियम पांच वर्ष का ही लिया था, यह सोचकर कि आगे क्या परिस्थितियाँ होगीं। परन्तु वह नियम आगे चलकर आजीवन का बन गया और मेरा जीवन दुर्गति के गर्त में जाने से बच गया। यद्यपि एक ऐसा मौका आया जब मैं वाराणसी में था और दीपावली का दिन था। पड़ोसी मित्र घर के सदस्यों के साथ जुआ खेल रहे थे। उन्होंने मुझे भी खेलने के लिए प्रेरित किया, मैंने बहुत मना किया परन्तु उनके बहुत आग्रह पर एक शर्त पर मैं तैयार हो गया। शर्त यह थी कि जीतूंगा तो पैसा ले नहीं जाऊँगा, हारूँगा तो दूंगा नहीं, अपना पैसा लगाऊंगा नहीं, आपके पैसों से ही खेलूंगा, केवल मनोरञ्जनार्थ।" मैं जीत गया परन्तु उनका पैसा उन्हें ही लौटा दिया, बहुत आग्रह पर भी नहीं लिया। यह मेरी परीक्षा थी जिसमें मैं उत्तीर्ण हो गया। इसके बाद झूठमूठ का भी जुआ नहीं खेला, अन्य व्यसनों का प्रश्न ही नहीं आया। यह भी समझ में आ गया कि निमित्त कारण कितना बलवान होता है, परन्तु वह उपादान की शक्ति के आगे अकिञ्चितकर होता है। उपादान कमजोर होने पर वह तेजी से प्रभावकारी होता है। निमित्त कारण भी कार्यकारी है। (2) भक्तामर का चमत्कार एक बार मैं बी.एच.यू. वाराणसी से एल.टी.सी. में तीर्थयात्रा पर जा रहा था। मेरे पास ट्रेन की चार टिकिटें प्रथम श्रेणी की थीं और दो सहयोगी की द्वितीय श्रेणी की, सर्कुलर टिकिटें थीं। वाराणसी से सब जगह रेलवे वालों ने तीन बार टेलीग्राम कर दिए थे और उसकी प्रतिलिपि हमें दे दी थी। चेन्नई पहुंचने पर पता चला कि यहाँ से रामेश्वरम का रिजर्वेशन कन्फर्म नहीं है और न कोई टेलीग्राम आया है। मैंने दुबारा फार्म भरकर रिजर्वेशन हेतु आवेदन दे दिया। दो दिन बाद जब रिजर्वेशन नहीं हुआ तब हम टी.टी. से मिले उसे अपने टिकिट बतलाए परन्तु उसने केवल मेरे बेटे का, जो दिव्यांग था, अनुमति दी। शेष सभी जनरल बोगी में बैठ गए। प्रातः एक स्टेशन आया तो टी.टी. ने कहा टिकिट लाओ यहाँ से प्रथम श्रेणी में बैठ सकते हो। हम लोग प्रथम श्रेणी में बैठ गए परन्तु टिकिट सहयोगी के पास थीं और वह किसी बोगी में सो रहा था। टी.टी. ने कहा यहाँ से आधी दूसरी दिशा में जायेगी। आप लोग टिकिट दिखलाओ। मैंने कहा आपको पहले दिखला दी थी। परन्तु उसने उतार दिया और बिना टिकिट कहकर 2-3 टी. टी. वालों को बुलाकर घेर लिया। मैं भक्तामर पढ़ने लगा और उसे बोगियों में खोजने लगा। जब ट्रेन चलने को हुई तो वह आ गया और आगे की यात्रा 137
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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