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________________ सिद्ध-सारस्वत (8) कम्प्यूटर लैब को चालू कराया। (9) राधाकृष्णन हॉल और आडिटोरियम जो कला सङ्काय के अन्तर्गत थे और अपनी जीर्ण-शीर्ण अवस्था के लिए रो रहे थे उनको नवीन रूप में व्यवस्थित कराया, जिससे यहाँ शैक्षणिक और सांस्कृतिक गतिविधियाँ चालू हो गई। (10) परीक्षा में शुचिता लाने का अदभ्य साहस दिखाया। परीक्षा में शुचिता बनाए रखने के लिए अध्यापकों समुदाय प्रवेश द्वार पर मेरे साथ खड़े रहते थे और नकल संबन्धी पुस्तकें आदि बाहर रखवा लेते थे। बीच-बीच में सर्च भी करते थे। बाथरूम वगैरह भी चेक करते थे। परीक्षा-पेपर देने के पूर्व पुनः वार्निंग देते थे जिससे परीक्षा में शुचिता आ गई। संस्कृत विभागाध्यक्ष के रूप में कार्य - मैं बी.एच.यू. के संस्कृत विभाग का दो बार (06.8.1992 से 5.8.1995 तक तथा 6.8.2003 से 31.3.2006 तक) अध्यक्ष बना। पूर्व में संस्कृत विभाग का नाम था 'संस्कृत-पालि विभाग'। मेरी तो इच्छा थी कि इसमें प्राकृत भी जोड़ दिया जाए परन्तु सन् 1982 में ही विभाग दो भागों में विभक्त हो गया 'संस्कृत विभाग' और 'पालि एवं बौद्ध अध्ययन विभाग'। मेरे गुरु प्रो. सिद्धेश्वर भट्टाचार्य ने विभाग के विकास के लिए बहुत श्रम किया। उन्होंने 'जैन और बौद्ध दर्शन' का एक उपविभाग (ग्रूप) सृजित किया जिस पर मेरी नियुक्ती की परन्तु विभागीय विरोध के कारण यह ग्रूप ज्यादा दिनों तक नहीं चल सका। मेरी दृढ़ता के कारण सिलेबस से इस ग्रूप को नहीं हटाया जा सका। मैंने अपने कार्यकाल में व्याकरण आदि कई अन्य ग्रूपों को सिलेबस में जोड़ा परन्तु वे भी नहीं चल सके। परन्तु मैंने संस्कृत और प्राकृत के दो डिप्लोमा कोर्स अवश्य प्रारम्भ करा दिए। संस्कृत डिप्लोमा तो आज चल रहा है परन्तु प्राकृत डिप्लोमा मेरे सेवा निवृत्ति के बाद बन्द हो गया 'संस्कृत सौदामिनी' नाम से विभागीय शोधपत्रिका का प्रकाशन शुरु किया। कई वर्षों से बन्द विभागीय पुस्तकालय खुलवाया परन्तु किसी की नियक्ति न होने से पुनः बन्द कर दिया गया। संगोष्ठियाँ, कार्यशालाएँ, व्याख्यान, प्रतियोगितायें, खेल आदि की गतिविधियों को आगे बढ़या रुका हुआ ग्रन्थ-प्रकाशन प्रारम्भ कराया। सेमिस्टर पद्धति से नवीन पाठ्यक्रम बनवाकर उसे लागू कराया। विभाग में संघर्ष तो बहुत झेलने पड़े परन्तु मैं विचलित नहीं हुआ। विभागीय कुछ अध्यापकों ने मेरा साथ दिया उनका तथा विरोधियों का भी मैं आभारी हूँ जिन्होंने मुझे संघर्षों में रोशनी दिखाई। डायरेक्टर के रूप में - मैं दो वर्ष दो माह (11.3.2010 से 30.4.2012) तक बी.एच.यू. से सेवानिवृत्ति के बाद पार्श्वनाथ विद्यापीठ में शोध डायरेक्टर के रूप में कार्य किया। मैंने अपने कार्यकाल में त्रैमासिक शोध पत्रिका श्रमण का जो विगत कई मासों से छप नहीं पा रही थी को रेगुलर तथा नए रूप में प्रकाशित किया। उसमें जिज्ञासा और समाधान का स्थायी स्तम्भ बनाया जिसका बड़ा समादर हुआ। श्रमण के पिछले वर्षों के अङ्कों के लेखों की संकलित सूची बनाकर द्वितीय भाग के रूप में प्रकाशित की। इसके अतिरिक्त अन्य कई ग्रन्थों के पेंडिंग छपाई के कार्य को प्रकाशित कि.ा। कई संगोष्ठियाँ तथा कार्यशालायें आयोजित कीं। मासिक व्याख्यान माला प्रारम्भ की जिसमें विभिन्न विषयों पर विशेषज्ञों के व्याख्यान कराए। जैन छात्रों को पर्युषण में दिन में भोजन की व्यवस्था कराई। जैन पर्व और पूजा आदि के आयोजन कराए। विदेशी छात्रों को जैन शिक्षण की डॉ. सुगम चन्द जैन के सहयोग से व्यवस्था दी। महिला छात्रावास का निर्माण कार्य तथा छात्राओं का पंजीयन किया नियुक्तियाँ की। परिसर का सौन्दर्गीकरण तथा म्यूजियम शाला को व्यवस्थित कराया। प्रतियोगितायें भी कराई। समाज को तथा विद्वद्वर्ग को विद्यापीठ से जोड़ने का प्रयास किया। इस तरह जो विद्यापीठ डॉ. मोहनलाल मेहता तथा डॉ. सागरमल जैन के कार्यकाल में स्वर्णिम युग में था उसे पुनः उसी रूप में लाने का प्रयास किया। डॉ. श्री प्रकाश पाण्डेय और डॉ. ओमप्रकाश सिंह के सहयोग से यह कार्य हो सका। आज भी दोनों विद्वान् वहाँ कार्यरत् हैं। अ.भा.दि.जैन विद्वत् परिषद् के मंत्री के रूप में कार्य - दिनांक 2 नवम्बर 1944 में स्थापित अ.भा.दि. जैन विद्वत् परिषद् के सत्रहवें खुरई अधिवेशन (27.6.1993) में मुझे मंत्री तथा डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री नीमच वालों को अध्यक्ष चुना गया। इसी अधिवेशन में मुझे देव शास्त्र और गुरु पर प्रामाणिक पुस्तक लिखने का भी उत्तरदायित्व सौंपा गया जिससे तद्विषयक भ्रान्तियों का निराकरण हो सके। मैंने तत्परता से ग्रन्थ तैयार किया जिसकी सभी ने प्रशंसा की। कई संस्करण निकालने पड़े। अर्थ व्यवस्था भी मैंने विक्री की योजना बनाकर छापने के पूर्व ही कर ली। छपने के पूर्व पं. जगन्मोहन लाल जी, पं. दरबारी लाल कोठिया, पं. हुकमचन्द भारिल्ल, डॉ. देवेन्द्र कुमार नीमच आदि विद्वानों से उसकी पुष्टि कराई तथा प. पू. आचार्य श्री विद्यासागर 136
SR No.035323
Book TitleSiddha Saraswat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherAbhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year2019
Total Pages490
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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