________________ 110 देव, शास्त्र और गुरु अक्षर-समूह से या जिस परिणाम से या जिस क्रिया से आठों प्रकार के कर्मों को काटा जाता है उसे कृतिकर्म कहते हैं। पुण्यसंचय का कारणभूत 'चितिकर्म' कहलाता है। जिसके द्वारा कर्मों का निराकरण किया जाता है उसे 'विनयकर्म' या 'शुश्रूषा' कहते हैं। महत्त्व वन्दना की गणना साधु के छह आवश्यकों में की जाती है तथा विनय को आभ्यन्तर तप स्वीकार किया गया है। अल्पश्रुत (अल्पज्ञ) भी विनय के द्वारा कर्मों का क्षपण कर देता है। अतएव किसी भी तरह विनय का परित्याग नहीं करना चाहिए। कौन किसकी वन्दना करे और किसकी न करें? गृहस्थ को सभी सच्चे साधुओं की वन्दना करनी चाहिए, जो सच्चे साधु नहीं हैं उनकी वन्दना नहीं करनी चाहिए। गृहस्थ को गणों में अपने से श्रेष्ठ गृहस्थ की भी वन्दना करनी चाहिए। जैसे नीचे की प्रतिमाधारी अपने से ऊपर की प्रतिमाधारी की वन्दना करे। शेष वन्दना का क्रम लोकाचारपरक है। साधुओं में वन्दना का क्रम निम्न प्रकार है सच्चे विरत साधु को अपने से श्रेष्ठ आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर की वन्दना (कृतिकर्म) करनी चाहिए तथा अविरत माता, पिता, लौकिक-गुरु, राजा, अन्यतीर्थिक (पाखण्डी), देशविरतश्रावक, देवगति के देव तथा पार्श्वस्थ आदि शिथिलाचारी मुनियों की वन्दना नहीं करनी चाहिए। लौकिक व्यापारयुक्त, स्वेच्छाचारी, दम्भयुक्त, परनिन्दक, आरम्भ-क्रियाओं आदि से युक्त श्रमण की वन्दना नहीं करनी चाहिए, भले ही वह चिरकाल से दीक्षित क्यों न हो? 3 साधु संघ में ब्रह्मचारी, क्षुल्लक, ऐलक और आर्यिकायें भी रहती हैं। ये क्रमशः गुणक्रम में ज्येष्ठ हैं। अतः ज्येष्ठक्रम से वन्दनीय हैं। जो साधु अथवा ब्रह्मचारी आदि श्रावक हैं वे यदि परस्पर समान कोटि के हैं तो दीक्षाक्रम या व्रतधारण के काल से ज्येष्ठ होने से वन्दनीय होंगे। 1. मू.आ. 590-591 2. मू.आ. 593-594, 597-598; मू.आ., प्रदीप 3.450-457 ३.मू.आ. 959-960 परिशिष्ट : सहायक ग्रन्थसूची वन्दना कैसे करें? देव, आचार्य आदि की वन्दना करते समय साधु को कम से कम एक हाथ दूर रहना चाहिए, तथा वन्दना के पूर्व पिच्छिका से शरीरादि का परिमार्जन करना चाहिए। आर्यिकाओं को पाँच हाथ की दूरी से आचार्य की, छह हाथ की दूरी से उपाध्याय की. और सात हाथ की दरी से श्रमण की वन्दना गवासन से बैठकर करनी चाहिए। वन्दना को गुरु गर्वरहित होकर शुद्ध भाव से स्वीकार करे तथा प्रत्युत्तर में आशीर्वाद देवे। आजकल श्रमणसंघ में साधु और आर्यिकाओं के अलावा साधु बनने के पूर्व की भूमिका वाले ऐलक, क्षुल्लक तथा ब्रह्मचारी भी रहते हैं। ऐलक और क्षल्लक परस्पर 'इच्छामि' कहते हैं। मुनियों को सभी लोग 'नमोऽस्तु' (नमस्कार हो) तथा आर्यिकाओं को 'वंदामि' (वन्दना करता हूँ) कहते हैं। मुनि और आर्यिकायें नमस्कर करने वालों को निम्न प्रकार कहकर आशीर्वाद देते हैं- यदि व्रती हों तो 'समाधिरस्तु' (समाधि की प्राप्ति हो) या कर्मक्षयोऽस्तु' (कर्मों का क्षय हो), अव्रती श्रावक-श्राविकायें हों तो 'सद्धर्मवृद्धिरस्तु' (सद्धर्म की वृद्धि हो), 'शुभमस्तु' (शुभ हो) या 'शान्तिरस्तु' (शान्ति हो); यदि अन्य धर्मावलम्बी हों तो 'धर्मलाभोऽस्तु' (धर्मलाभ हो), यदि निम्नकोटि वाले (चाण्डालादि) हों तो 'पापक्षयोऽस्तु' (पाप का विनाश हो)। अन्य विषय अन्य संघ से समागत साधु के प्रति आचार्य आदि का व्यवहार किसी दूसरे संघ से साधु के आने पर वात्सल्यभाव से या जिनाज्ञा से उस अभ्यागत साधु का उठकर प्रणामादि के द्वारा स्वागत करना चाहिए। सात कदम आगे बढ़कर उसके रत्नत्रयरूप धर्म की कुशलता पूछनी चाहिए। इसके बाद 1. मू.आ. 611 २.पंच छ सत्त हत्थे सूरी अज्झावगो य साधू य। परिहरिऊणज्जाओ गवासणेणेव वंदंति।। - मू आ. 195 3. मू.आ. 612 4. नमोऽस्त्विति नतिः शास्ता समस्तमतसम्मता। कर्मक्षया समाधिस्तेऽस्त्वित्यार्य जने नते।। धर्मवृद्धिः शुभं शान्तिरस्त्वित्याशीरगारिणी। पापक्षयोऽस्त्विति प्राशैश्चाण्डालादिषु दीयताम्।। -आचारसार 66-67 5. मू.आ. 160-161.