________________ 88 देव, शास्त्र और गुरु 1. आकाशपुष्प अथवा खरविषाण कदाचित् सम्भव हो जायें, परन्तु गृहस्थ को किसी भी देश-काल में ध्यानसिद्धि सम्भव नहीं है।' 2. मुनियों के ही परमात्मध्यान घटित होता है। तप्त लोहे के गोले के समान गृहस्थों को परमात्म-ध्यान सम्भव नहीं है। 3. दान और पूजा, ये श्रावकों (गृहस्थों) के मुख्य कर्म हैं, इनके बिना श्रावक नहीं होता। साधु का मुख्य धर्म ध्यान और अध्ययन है, इनके बिना कोई साधु नहीं होता। शुभोपयोगी-साधु : और शुद्धोपयोगी-साधु : समन्वय जैसा कि ऊपर कहा गया है 'मुनियों के ही आत्मध्यान घटित होता है, गृहस्थों के नहीं। इससे स्पष्ट है कि शुद्ध आत्मध्यान करने के लिए बाह्यलिङ्ग धारण करना आवश्यक है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, अलग-अलग किनारे नहीं। अतः शास्त्रों में कहा है- साधु बनते ही शद्धात्मा का ध्यान संभव नहीं है। अतः साधु बाह्य लिङ्ग को धारण करके पहले शभोपयोगरूप सरागचारित्र का पालन करता है। पश्चात् अभ्यासक्रम से शुद्धात्मध्यानरूप शुद्धोपयोगी बनता है। दोनों में पूज्यता है। 1. जो मुनिराज सदा तत्त्वविचार में लीन रहते हैं, मोक्षमार्ग (रत्नत्रय) की आराधना जिनका स्वभाव है तथा प्रसङ्गतः निरन्तर धर्मकथा में लगे रहते हैं वे यथार्थ मुनिराज हैं। इस तरह यथावसर रत्नत्रय की आराधना और धर्मोपदेशरूप दोनों क्रियाएँ मुनिराज करते हैं। 2. जो श्रमण [अन्तरंग में ] सदा ज्ञान-दर्शन आदि में प्रतिबद्ध रहते हैं और बाह्य में) मूलगुणों में प्रयलशील होकर विचरते हैं वे परिपूर्ण श्रमण हैं।' 1. खपुष्पमथवा शृङ्गं खरस्यापि प्रतीयते। न पुनर्देशकालेऽपि ध्यानसिद्धिहाश्रमे।। - ज्ञानार्णव 4/17 2. मुनीनामेव परमात्मध्यानं घटते। तप्तलोहगोलकसमानगृहिणां परमात्मध्यानं न संगच्छते। -मोक्षपाहुड, टीका 2/305/9 3. दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मे ण सावया तेण विणा। झाणाझयणं मुक्खं जइ धम्म ण तं विणा तहा सोवि।। -र.सार 11 4. तच्चवियारणसीलो मोक्खपहाराहणसहावजुदो। अणवरयं धम्मकहापसंगादो होइ मुणिराओ।। -र.सार 99 5. चरदि णिबद्धो णिच्चं समणो णाणम्मि दंसणमुहम्मि। पयदो मूलगुणेसु य जो सो पडिपुण्णसामपणो।। -प्र.सा. 214 तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) 3. शुभोपयोगी का धर्म के साथ एकार्थ-समवाय होने से शुभोपयोगी भी श्रमण हैं, परन्तु शुद्धोपयोगियों के साथ बराबरी सम्भव नहीं है, क्योंकि शुद्धोपयोगी समस्त कषायों से रहित होने से निरास्रवी हैं और शुभोपयोगी कषायकण (अल्पकषाय) से युक्त होने के कारण सास्रवी (आस्रव-सहित) हैं। इससे स्पष्ट है कि शुभोपयोगी और शुद्धोपयोगी दोनों पूज्य हैं। उनमें जो अन्तर है वह पूज्यता के अतिशय में हैं क्योंकि वे गुणस्थानक्रम में ऊपर हैं। परन्तु हम अल्पज्ञ दोनों में अन्तर नहीं कर सकते क्योंकि 'कौन सच्चा आत्मध्यानी है' यह सर्वज्ञ ही जान सकते हैं। हम केवल बाह्य-क्रियाओं से अनुमान कर सकते हैं। बाह्य क्रियाओं के अलावा हमारे पास कोई दूसरा मापदण्ड नहीं है। जो अन्दर से शुद्ध होगा उसकी बाह्य क्रियाएँ भी शुद्ध होंगी। जिसकी बाह्य क्रियाएँ शुद्ध नहीं हैं वह अन्दर से शुद्ध नहीं हो सकता। 4. शुद्धात्म-परिणति से परिणत श्रमण जब उपसर्गादि के आने पर स्वशक्त्यनुसार उससे बचने की इच्छा करता है तब वह शुभोपयोगी का प्रवृत्तिकाल होता है और इससे अतिरिक्त काल शुद्धात्मपरिणति की प्राप्ति के लिए होने से निवृत्तिका काल होता है। उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि श्रमणों के सदा-काल शुद्धात्म-परिणति सम्भव नहीं है। वह तो क्षीणकषाय वाले केवलियों में ही सम्भव है। इससे पूर्वकाल में उपशमश्रेणी के ग्यारहवें गुणस्थान तक तो कम से कम क्षुधादि परीषहों की सम्भावना होने से उनके निवृत्यर्थ शुभोपयोगी बनना ही पड़ता है। सातवें गुणस्थान से लेकर ऊपर के गुणस्थान ध्यानी मुनियों के हैं। छद्मस्थ मुनियों का ध्यान भी अन्तर्मुहूर्त से अधिक समय तक एकरूप नहीं रहता है। ऐसी स्थिति में शुभोपयोग का सर्वथा परित्याग सम्भव नहीं है। क्षपकश्रेणी वाले मुनि भले ही निरन्तर आगे 1. ततः शुभोपयोगिनोऽपि धर्मसद्भावाद् भवेयुः श्रमणाः किन्तु तेषां शुद्धोपयोगिभिः समं समकाष्ठत्वं न भवेत्, यतः शुद्धोपयोगिनो निरस्तसमस्तकषायत्वादनासवा एव। इमे पुनरनवकीर्णकषायकणत्वात् सास्रवा एव। -प्र.सा./त.प्र. 245 2. यदा हि समधिगतशुद्धात्मवृत्तेः श्रमणस्य तत्प्रच्यावनहेतोः कस्याप्युपसर्गस्योपनिपातः स्यात् स शुभोपयोगिनः स्वशक्त्या प्रतिचिकीर्षा प्रवृत्तिकालः। इतरस्तु स्वयं शुद्धात्मवृत्तः समधिगमनाय केवल निवृत्तिकाल एव। -प्र.सा./त.प्र. 252