________________ 64 देव, शास्त्र और गुरु हुए पर-हित-साधक गुरु दुर्लभ हैं। ऋषियो ने कहा है- 'उपदेश दिया जाने वाला पुरुष चाहे रोष करे, चाहे उपदेश को विषरूप समझे, परन्तु गुरु को हितरूप वचन अवश्य कहना चाहिए। 3. शिष्य के दोषों को गुरु अन्यत्र प्रकट न करे- गुरु पर विश्वास करके ही शिष्य अपने गुप्त दोष उन्हें बतलाता है। अतः गुरु का कर्तव्य है कि वह शिष्य के उन दोषों को अन्य से न कहे। उपाध्याय का स्वरूप आचार्य के बाद उपाध्याय का विशेष महत्त्व है। णमोकार मंत्र में पञ्च परमेष्ठियों में उपाध्याय का आचार्य के बाद दूसरा स्थान है। उपाध्याय वक्तृत्वकला में निपुण होता है तथा आगमज्ञ (बारह अङ्गों का ज्ञाता) होता है। इसका मुख्य कार्य अध्ययन और अध्यापन है। इसमें आचार्य के सभी गुण पाए जाते हैं। यह आचार्य की तरह धर्मोपदेश दे सकता है, परन्तु आदेश नहीं दे सकता 1. पिल्लेदूण रडंत पि जहा बालस्स मुहं विदारित्ता। पज्जेई घदं मया तस्सेव हिदं विचितंती।। 479 तह आयरिओ वि अणुज्जस्स खवयस्स दोसणीहरणं। कुणदि हिंदं से पच्छा होहिदि कडुओसहं वत्ति।। 480 / / तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) है। उपाध्याय के लिए शास्त्रों का विशेष अभ्यास होना आवश्यक है। वह स्वयं श्रुत का अध्ययन करता है और शिष्यों को श्रुत का अध्यापन कराता है। अतः लोकव्यवहार में सभी लोग इसे आसानी से गुरु समझते हैं। श्रेष्ठ उपाध्याय वही है जो ग्यारह अङ्ग और चौदह पूर्वो का पाठी हो। जैसा कि कहा है- 'रत्नत्रय से सुशोभित, समुद्रतुल्य, अङ्ग और पूर्व-ग्रन्थों में पारङ्गत तथा श्रुत के अध्यापन में सदा तत्पर महान् साधु उपाध्याय कहलाता है। इससे इतना स्पष्ट है कि सच्चा उपाध्याय वही है जो स्वयं सदाचार-सम्पन्न हो, आगमग्रन्थों का ज्ञाता हो तथा आगम ग्रन्थों का अध्यापन करता हो। आगम-भिन्न विषयों का उपदेष्टा उपाध्याय नहीं है। काल-दोष से आज यद्यपि ग्यारह अङ्ग और चौदह पूर्वग्रन्थ न तो उपलब्ध हैं और न उनका कोई ज्ञाता है, फिर भी उन ग्रन्थों के आधार पर लिखे गए कषायपाहुड, षट्खण्डगाम, समयसार आदि के ज्ञाता एवं उपदेष्टा साधु उपाध्याय माने जा सकते हैं। आचार्य आदि साधु-संघ के पाँच आधार मूलाचार में कहा है कि साधु-संघ के पाँच आधार हैं- आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर। जहाँ ये आधार न हों वहाँ रहना उचित नहीं है, क्योंकि संघ का संचालन इन्हीं पर निर्भर है। दीक्षा और अनुशासन आचार्य का कार्य है। अध्ययन-अध्यापन उपाध्याय का कार्य है। संघ का प्रवर्तन (व्यवस्था) करना प्रवर्तक (उपाध्याय की अपेक्षा अल्प-श्रुतज्ञाता) का कार्य है। शिष्यों को कर्तव्यबोध कराकर संयम में स्थिर करना स्थविर (चिरकालदीक्षित साधु) का कार्य है और गुरु की आज्ञा से साधु-समूह (गण) को साथ लेकर पृथक् विचरते हुए शास्त्र-परम्परा को अविच्छिन्न रखना गणधर (आचार्य-भिन्न, परन्तु आचार्य के सदृश गणरक्षक) का कार्य है। ये पाँच आधार कार्यविभाजन की दृष्टि से हैं। आज इस तरह के साधु-संघ की परम्परा लुप्तप्राय है। 1. शेषस्तत्र व्रतादीनां सर्वसाधारणो विधिः। कुर्याद्धर्मोपदेशं स नादेशं सूरिवत्क्वचित्।। -पं. अ., उ. 662 तथा देखिए, ध. 1/1.1.1/32/51, पं. अ., उ. 659-665, मू. आ., वृत्ति 4/155 2. रत्नत्रयमहाभूषा अङ्गपूर्वाब्धिपारगाः। उपाध्याया महान्तो ये श्रुतपाठनतत्पराः।। -मूलाचारप्रदीप 447 3. तत्थ ण कप्पइ वासों जत्थ इमे णस्थि पंच आधारा। आइरिय उवज्झाया पवत्तथेरा गणधरा य।। 155 सिस्साणुग्गहकुसलो धम्मुवदेसो य संघवट्टवओ। मज्जादुवदेसोवि य गणपरिरक्खो मुणेयव्वो।। - मू. आ. 156 पाएण वि ताडितो स भद्दओ जत्थ सारणा अस्थि।। 481 आदट्ठमेव जे चिंतेदुमुट्ठिदा जे परद्रुमवि लोगे। कडुय फरुसेहिं ते हु अदिदुल्लहा लोए।। -भ, आ. 483 2. तथा चार्षम्रूसउ वा परे मा वा विंस वा परियत्तउ। भासियत्वा हिया भासा सपक्खगुणकारिया।। -स्याद्वाद मञ्जरी 3/15/19 3. आयरियाणं वीसत्थदाए भिक्खू कहेदि सगदोसे। कोई पुण णिद्धम्मो अण्णेसि कहेदि ते दोसे। -भ. आ. 488 4. बारसंगं जिणक्खादं सज्झायं कथितं बुधे। उवदेसई सज्झायं तेणुवज्झाउ उच्चदि।। -मू. आ. 7/10 उपाध्यायत्वमित्यत्र श्रुताभ्यासोऽस्ति कारणम्। यदध्येति स्वयं चापि शिष्यानध्यापयेद्गुरुः।। - पं. अ., उ. 661