________________ 60 देव, शास्त्र और गुरु चारित्र और तप) की तथा आत्मशुद्धि आदि गुणों की प्राप्ति होती हैं। निम्न (चारित्रहीन) निर्यापक का आश्रय लेने से हानि होती है, क्योंकि वह रत्नत्रय से च्युत होने पर उसे रोक नहीं सकेगा। इसके अतिरिक्त वह क्षपक की सल्लेखना को लोक में प्रकट करके पूजा आदि आरम्भ क्रियाओं को करायेगा। समाधिमरण-साधक योग्य निर्यापकाचार्य का स्वरूप आचारवत्व आदि जो सामान्य गुण आचार्य के बतलाये हैं वे सभी गुण समाधिमरणसाधक निर्यापकाचार्य में होना चाहिए। इसके अतिरिक्त योग्यायोग्य आहार के जानने में कुशल, क्षपक के चित्त को प्रसन्न रखने वाला, प्रायश्चित्तग्रन्थ के रहस्य को जानने वाला, आगमज्ञ, स्व-पर के उपकार करने में तत्पर, संसारभीरु तथा पापकर्मभीरु साधु ही योग्य निर्यापक हो सकता है। जिस प्रकार नौका चलाने में अभ्यस्त बुद्धिमान् नाविक तरंगों से अत्यन्त क्षुभित समुद्र में रत्नों से भरी हुई नौका को डूबने से बचा लेता है उसी प्रकार भूख, प्यास आदि तरंगों तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) से क्षुभित क्षपकरूपी नौका को निर्यापकाचार्य मधुर हितोपदेश के द्वारा क्षपक के मन को स्थिर रखते हुए समाधिमरण की साधना करा देता है। सूत्रार्थज्ञ तथा आधारगुणयुक्त निर्यापकाचार्य के पादमूल में सल्लेखना लेने वाले क्षपक साधु को अनेक गुणों की प्राप्ति होती है। उसके संक्लेश-परिणाम नहीं होते। उसकी रत्नत्रय-साधना में बाधा नहीं आती। रोगग्रस्त क्षपक प्रकुर्वीगुणयुक्त निर्यापकाचार्य के पास रहकर तथा शुश्रूषा को पाकर संक्लेश को प्राप्त नहीं होता है। धैर्यजनक, आत्महितप्रतिपादक और मधुर वाणी वाले नियपिकत्व गुणधारक निर्यापकाचार्य के पास रहने से साधना सफल होती है। इसीलिए आचारवत्वादि गुणधारक निर्यापकाचार्य की कीर्ति होती है। योग्य निर्यापकाचार्य के न मिलने पर आचारवत्वादि गुणों से युक्त योग्य निर्यापकाचार्य या उपाध्याय के न मिलने पर क्षपक के समाधिमरण (सल्लेखना) साधने हेतु प्रवर्तक मुनि अथवा अनुभवी वृद्ध मुनि अथवा बालाचार्य निर्यापकाचार्य का कार्य कर सकते हैं। भरत और ऐरावत क्षेत्र में विचित्र काल का परावर्तन होता है जिससे कालानुसार प्राणियों के गुणों में हीनाधिकता आती है। अतएव जिस समय जैसे हीनाधिक 1. इय अट्ठगुणोवेदी कसिणं आराधणं उवविधेदि। - भ. आ. 507 आयारजीदकप्पगुणदीवणा अत्तसोधिणिज्झंझा। अज्जव-मद्दव-लाघवतुट्ठी पल्हादणं च गुणा।। -भ. आ. 409 तथा देखिए भ. आ. 24-26 २.सेज्जोवधिसंथारं भत्तं पाणं च चयणकप्पगदो। उवकप्पिज्ज असुद्ध पडिचरिए वा असंविग्गे।। 424 सल्लेहणं पयासेज्ज गंधं मल्लं च समणुजाणिज्जा। अप्पाउग्गं व कधं करिज्ज सइरं वा जंपिज्ज।।४२५ ण करेज्ज सारणं वारणं च खवयस्स चयणकप्पगदो। उद्देज्ज वा महल्लं खवयस्स किंचणारंभ।। -- भ. आ. 426 3. पंचविधे आचारे समुज्जदो सव्वसमिदचेट्ठाओ। सो उज्जमेदि खवयं पंचविधे सुदु आयारे।। 423 आयारत्थो पुण से दोसे वि ते विवज्जेदि। तम्हा आयारत्थो णिज्जवओ होदि आयरिओ।। -भ. आ. 427 संविग्गवज्जभीरुस्स पादमूलम्मि तस्स विहरतो। जिणवयण सव्वसारस्स होदि आराधओ तादी।। 400 कप्पाकप्पे कुसला समाधिकरणुज्जदा मुदरहस्सा। गीदत्था भयवंता अडदालीसं तु णिज्जवया।। -भ. आ. 648 १.जह पक्खुभिदुम्मीए पोदं रदणभरिदं समुद्दम्मि। णिज्जवओ धारेदि हि जिदकरणो बुद्धिसंपण्णो।। 503 तह संजमगुणभरिदं परिस्सहुम्मीहि सुभिदमाइखें। णिज्जवओ धारेदि हु मुहुरिहिं हिदोवदेसेहि।। - भ. अ. 504 तथा देखें, मूलाचार (वृत्तिसहित) 2/88 2. गीदत्थपादमूले होति गुणा एवमादिया बहुगा। ण य होइ संकिलेसो ण चावि उप्पज्जदि विवत्ती।। 447 खवगो किलामिदंगो पडिचरिय गुणेण णिव्वुदि लहइ। तम्हा णिव्विसिदव्वं खवएण पकुव्वयसयासे।। 458 धिदिबलकरमादहिदं महुरं कण्णाहुदि जदि ण देइ। सिद्धिसुहमावहती चत्ता साराहणा होइ।। 505 इय णिव्ववओ खवयस्स होई णिज्जावओ सदायरिओ। होइ य कित्ती पधिदा एदेहिं गुणेहि जुत्तस्स।। - भ. आ. 506