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________________ 5. अनाभोगिक मिथ्यात्व-साक्षात् अथवा परंपरा से तत्त्व की अप्राप्ति / यह मिथ्यात्व एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीवों में होता है / 2. अविरति-हिंसादि पापों के त्याग की प्रतिज्ञा के अभाव को अविरति कहते हैं / हिंसादि पापों का आचरण नहीं करने पर भी यदि हिंसादि पापों के त्याग की प्रतिज्ञा नहीं होती है तो उन हिंसादि दोषों का पाप लगता ही है / प्रतिज्ञा यह बंधन नहीं है किन्तु भव के बंधन में से छुड़ाने वाली सर्वश्रेष्ठ कला है। व्यवहार में भी यदि कोई मकान-दुकान भाड़े पर ली हो और उस मकान या दुकान का कोई उपयोग न भी करे तो भी उस मकान का किराया चुकाना ही पड़ता है। घर में इलेक्ट्रिक लाइट का कनेक्शन लिया हो तो प्रतिमास उसका Bill चुकाना ही पड़ता है-भले ही लाइट जलाएँ या न जलाएँ / उसी प्रकार जब तक पाप के त्याग की प्रतिज्ञा नहीं करते हैं, तब तक पाप का बंध चालू ही रहता है | पापत्याग की प्रतिज्ञा के अभाव में पाप करने का चांस Chance बना रहता है, इस कारण कभी भी वह पाप हो जाने की संभावना रहती है। स्वेच्छापूर्वक पापत्याग की प्रतिज्ञा करने से व्यक्ति पाप के भार से हल्का हो जाता है। गत जन्मों में आरंभ-समारंभ के जो शस्त्र आदि इकट्ठे किए, उन सबको यदि नहीं वोसिराया जाए तो उन शस्त्रों संबंधी पाप का बंध चालू रहता है। अविरति का पाप भी अत्यधिक प्रमाण में हो जाता है / सामान्यतया व्यक्ति के जीवन में पाप की प्रवृत्ति तो अल्प प्रमाण में होती है, परंतु पापत्याग की प्रतिज्ञा नहीं होने से सतत पाप का बंध बना रहता अविरति के पाप से बचने के लिए परमात्मा ने विरति धर्म बतलाया है / विरति का स्वीकार करने से पाप का बंध बहुत कम हो जाता है / देव व नरक में रहे सम्यग्दृष्टि जीवों में मिथ्यात्व का अभाव होता है, परंतु अविरति के कारण उन्हें भी पापबंध की क्रिया चालू रहती है | कर्मग्रंथ (भाग-1) 62
SR No.035320
Book TitleKarmgranth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2019
Total Pages224
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size39 MB
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