________________ * आहारक लब्धिवंत मुनि को वैक्रिय लब्धि भी हो सकती है, फिर भी उन दोनों लब्धियों का प्रयोग एक साथ नहीं होता है। * देवता-नारकों को भवधारणीय वैक्रिय शरीर होता है, जब कि तिर्यंच-मनुष्यों को लब्धिजन्य ही वैक्रिय शरीर होता है | इस प्रकार औदारिक आदि शरीर की प्राप्ति में कारणभूत यह शरीर नामकर्म है। कार्मण शरीर और कार्मण शरीर नामकर्म में भिन्नता है / कार्मण वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करने में हेतु भूत कार्मण शरीर नामकर्म की एक उत्तर प्रकृति है अर्थात् जब तक कार्मण शरीर नामकर्म का उदय है तब तक आत्मा कार्मण वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करती है | आत्मा के साथ एकाकार बने आठ कर्म की अनंत वर्गणा के पिंड का नाम कार्मण शरीर है। अंगोपांग नाम कर्म के भेद बाहूरु पिट्ठी सिर उर, उवरंग उवंग अंगुली पमुहा / सेसा अंगोवंगा, पढम तणु तिगस्सुवंगाणि ||34|| शब्दार्थ __ बाहु=भुजा, उरु जंघा, पिट्ठी-पीठ, सिर मस्तक, उर-हृदय, अंग-अंग , उवंग-उपांग, अंगुली पमुहा-अंगुली आदि सेसा शेष, अंगोवंगा=अंगउपांग, पढम तणु तिगस्स प्रथम तीन शरीर को , उवंगाणि-उपांग | गाथार्थ दो हाथ, दो पैर, एक पीठ, एक सिर, एक छाती और एक पेट ये आठ अंग हैं / अंगुली आदि अंगों के साथ जुड़े हुए छोटे अवयवों को उपांग और शेष अंगोपांग कहलाते हैं ये अंग आदि औदारिक आदि तीन शरीरों में ही होते हैं / विवेचन 4. अंगोपांग नामकर्म : दो हाथ, दो पैर, पीठ, सिर, छाती तथा पेट ये अंग कहलाते हैं तथा अंगों के साथ संलग्न अंगुली, नाक, कान आदि छोटेकर्मग्रंथ (भाग-1) 1168