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________________ मोहनीय कर्म आत्मा में रहे अनंत ज्ञान गुण को ढकने का कार्य ज्ञानावरणीय कर्म करता है, उसी प्रकार आत्मा में रहे 'वीतरागता' के गुण को ढकने का कार्य मोहनीय कर्म करता है / आत्मा का मूलभूत स्वभाव 'वीतरागता' है अर्थात् राग और द्वेष का सर्वथा अभाव ! मोहनीय कर्म का उदय ही आत्मा में राग और द्वेष पैदा करता है | उस राग-द्वेष के कारण ही आत्मा, पाप में प्रवृत्ति करती ह अर्थात् निष्पाप ऐसी आत्मा को पापी बनाने का कार्य मोहनीय कर्म करता है / __ शाता वेदनीय का उदय व्यक्ति को सुखी बनाता है / अशाता वेदनीय का उदय व्यक्ति को दुःखी बनाता है। जबकि मोहनीय कर्म का उदय व्यक्ति को पापी बनाता है। मोह अर्थात् जो आत्मा को मोहित करे-भ्रमित करे / जो सत्य हो उसमें असत्य की बुद्धि और जो असत्य हो, उसमें सत्य की बुद्धि पैदा करने का काम मोहनीय कर्म करता है | मोहनीय कर्म के उदय से जीव अयोग्य-अनुचित प्रवृत्ति करता है। क्रोध करने जैसा नहीं है, फिर भी मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा क्रोध करती है। अभिमान करने जैसा नहीं है, माया करने जैसी नहीं है, लोभ करने जैसा नहीं है, फिर भी आत्मा मोहनीय कर्म के उदय से अभिमान करती है, माया करती है और लोभ भी करती है / इतना ही नहीं, क्रोध, मान आदि करने के बाद मोहनीय कर्म के उदय के कारण आत्मा उस क्रोध आदि को अच्छा भी मानती है | ___ गलत को सही कहना, अच्छा मानना, यह सबसे बडा अपराध है | कर्मग्रंथ (भाग-1))
SR No.035320
Book TitleKarmgranth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayratnasensuri
PublisherDivya Sandesh Prakashan
Publication Year2019
Total Pages224
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size39 MB
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