________________ 11. पुस्तक-अखबार आदि से हवा नहीं डालनी चाहिए | 12. पुस्तक पर बैठना नहीं चाहिए / ज्ञान आराधना के आठ आचार 1. काल-अस्वाध्याय-अकाल समय में आगम व पूर्वधर रचित ग्रन्थों का स्वाध्याय नहीं करना चाहिए / निषिद्ध काल में स्वाध्याय करने से प्रभुआज्ञा का भंग होता है और ज्ञान की विराधना होती है। 2. विनय-ज्ञानदाता गुरु का विनय करते हुए स्वाध्याय करना चाहिए। अविनय से प्राप्त ज्ञान स्व-पर उभय के अकल्याण का कारण बनता है | 3. बहुमान-ज्ञानदाता गुरुदेव के प्रति हृदय में पूरा आदर-सम्मान व बहुमान भाव होना चाहिए | जिसके दिल में बहुमान नहीं है, वह ज्ञान के वास्तविक फल को प्राप्त नहीं कर सकता / गुरु बहुमान से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है | 4. उपधान-नमस्कार-महामंत्र आदि सूत्रों को विधिपूर्वक गुरुमुख से ग्रहण करने के लिए उपधान की आराधना आवश्यक है | साधु जीवन में भी आगम ग्रन्थों के पढ़ने का अधिकार पाने के लिए गुर्वाज्ञानुसार उन उन आगमों के योगोद्वहन करने पड़ते हैं / 5. अनिह्नवता-जिस गुरुदेव के पास ज्ञानाभ्यास किया हो उन्हें कभी नहीं भूलना चाहिए / उनके नाम को छिपाने से ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध होता है। 6. व्यंजन-गणधर गुंफित सूत्रों का अस्खलित शुद्ध उच्चारण करना चाहिए / अशुद्ध उच्चारण से सूत्र का अर्थ ही बदल जाता है / 'जिणाणं' के बदले जिण्णाणं बोलने से एकदम अर्थ बदल जाता है / जिणाणं का अर्थ है राग-द्वेष के विजेता और जिण्णाणं का अर्थ है-जीर्ण बने हुए को / अन्नत्य का अर्थ है अन्यत्र और अनत्थ का अर्थ हो जाता है अनर्थ / चिता और चिंता में एक बिंदी का फर्क है किंतु अर्थ में रात दिन का अंतर पड़ जाता है। 7. अर्थ-सूत्रों का यथार्थ अर्थ करना चाहिए | मनःकल्पित-विपरीत अर्थ करने से ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है / कर्मग्रंथ (भाग-1))