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________________ नागरीप्रचारिणो पत्रिका . भी मान लें कि घटनाओं की लड़ी सी लग जाने के कारण उसका उल्लेख किया गया, तो भी ९२वे श्लोक में विक्रमादित्य के वशजों की शकों द्वारा १३५ वर्ष बाद होनेवाली पराजय को और नवीन शक संवत् की स्थापना को बतलाने की कोई आवश्यकता न थी। सारांश यह कि श्लोक ८९-९२ में किया गया वर्णन मूल जैन परंपरा में न था। उक्त वर्णन को तेरहवीं शताब्दि में प्रचलित कथाओं से लेकर प्रभावक ने उसमें अंतर्निहित कर दिया। यदि यह बात ई० पू० प्रथम शताब्दि में ही लोक-विश्रुत रहती तब इस संवत् को पहले तो कृत और पीछे से मालव क्यों कहा जाता ? शत्रजय माहात्म्य का प्रमाण भी अग्राह्य प्राचीन काल में भी इस संवत् को वि० सवत् कहते थे, इस विधान को पुष्ट करने के लिये जैनों के शत्रुजय-माहात्म्य का प्रमाण दिया जाता है* । उसके अंत में कहा गया है कि वि० सवत् ४७७ में यह प्रथ लिखा गया। यदि इस बात को सही मान लिया जाय तो इसका अर्थ यह होगा वि० सं० को ५वीं शताब्दि में गुजरात में यह सवत् 'विक्रम संवत्' नाम से रूद था। परंतु उपर्युक्त विधान मूलत: असत्य है। ग्रंथकार का कथन है कि वलभी के अधिपति - शिलादित्य ने काठियावाड़ से जिस वि० स० ४७७ में बौद्धों को निकाल बाहर किया, उसी वर्ष यह प्रथ लिखा गया। यह कथन ठीक इस कथन के अनुरूप है कि जिस ११९१ में शिवाजी ने थानेश्वर में मुहम्मद गोरी का पराभव किया उसी वर्ष काव्यप्रकाश' प्रथ मल्लिनाथ ने समाप्त किया। सन् ४२० में वलभी में शिलादित्य नामक कोई राजा ही नहीं था, क्योंकि उन दिनों वहाँ पर सम्राट कुमारगुप्त शासन कर रहे थे। वलभी के शिलादित्य प्रथम सन् ६०५ में और शिलादित्य सप्तम ७६६ में राज्य कर रहे थे। सन् ४२० में शिलादित्य का उल्लेख कर प्रथकतो ने अपने अगाध ऐतिहासिक अज्ञान एवं असत्य प्रमाणों का प्रदर्शन मात्र किया है। अन्य अकाट्य प्रमाणों से यह बात सिद्ध ** कनिंघम-ए बुक ऑव इंडियन इराज् , पृ० ४६ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035307
Book TitleVikram Pushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Mahakavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1944
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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