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________________ पृथिवीसूक्त-एक अध्ययन ऊपर कहे हुए पार्थिव कल्याणों से संपन्न मातृभूमि का स्वरूप अत्यत मनोहर है। उसके अतिरिक्त स्वर्ण, मणि-रत्न आदिक निधियों ने उसके रूप-मडन को और भी उत्तम बनाया है। रत्नप्रसू, रत्नधात्री यह पृथिवी 'वसुधानी' है, अर्थात् सारे कोषों का रक्षा-स्थान है। उसकी छाती में अनत सुवर्ण भरा हुआ है। हिरण्यवक्षा भूमि के इस अपरिमित कोष का वर्णन करते हुए कवि की भाषा अपूर्व तेज से चमक उठती है विश्वंभरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षा जगतो निवेशनी॥२॥ निधिं बिभ्रती बहुधा गुहा वसु मणि हिरपय पृथिवी ददातु मे । वसूनि नो वसदा रासमाना देवी दधातु सुमनस्यमाना ।। ४४ ॥ सहस्रं धारा द्रविणस्य में दुहां ध्रुवेव धेनुरनपस्फुरन्ती ॥ ४५ ॥ विश्व का भरण करनेवाली, रनों की खान, हिरण्य से परिपूर्ण, हे मातृभूमि, तुम्हारे ऊपर एक संसार हो बसा हुआ है। तुम सबको प्राणस्थिति का कारण हो । . अपने गूढ़ प्रदेशों में तुम अनेक निधियों का भरण करती हो। रत्न, मणि और सुवर्ण की तुम देनेवाली हो। रत्नों का वितरण करनेवाली वसुधे, प्रेम और प्रसन्नता से पुलकित होकर हमारे लिये कोषों को प्रदान करो। __ अटल खड़ी हुई अनुकूल धेनु के समान, हे माता, तुम सहस्रों धाराओं से अपने द्रविण का हमारे लिये दोहन करो। तुम्हारी कृपा से राष्ट्र के कोष अक्षय्य निधियों से भरे-पुरे रहें। उनमें किसी प्रकार किसी कार्य के लिये कभी न्यूनता न हो। हिरण्यवक्षा पृथिवी के इस आभामय सुनहले रूप को कवि अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है तस्यै हिरण्यवक्षसे पृथिव्या अकरं नमः। (२६) पृथिवी के साथ संवत्सर का अनुकूल सबध भी हमारी उन्नति के लिये अत्यंत आवश्यक है। कवि ने कहा है ___ 'हे पृथिवी, तुम्हारे ऊपर संवत्सर का नियमित ऋतुचक्र घूमता है। ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमंत, शिशिर और वसंत का विधान अपने अपने कल्याणों को प्रतिवर्ष तुम्हारे चरणों में भेंट करता है। धीर गति से अप्रसर होते हुए Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035307
Book TitleVikram Pushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Mahakavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1944
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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