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________________ नागरीप्रचारिणो पत्रिका वे ओषधियाँ षट् ऋतुओं के चक्र में परिपक्व होकर जब मुरझा जाती हैं तब उनके बीज फिर पृथिवी में ही समा जाते हैं। पृथिवी उन बीजों को सँभालकर रखनेवाली धात्री है (गृभिः ओषधीनाम्, ५७)। समतल मैदान और हिमालय आदि पर्वतों के उत्संग में स्वच्छंद हवा और खुले आकाश के नीचे वातातपिक जीवन बितानेवाली इन असंख्य ओषधियों की इयत्ता कौन कह सकता है ? इंद्रधनुष के समान सात रंग के पुष्पों से खिलकर सूर्य की धूप में हंसते हुए जब हम इन्हें देखते हैं तब हमारा हृदय आनंद से भर जाता है। शंखपुष्पी का छोटा सा हरित तृण श्वेत पुष्प का मुकुट धारण किए हुए जहाँ विकसित होता है वहाँ धूप में एक मंगल सा जान पड़ता है। ब्राह्मो, रुद्रवती, स्वर्णक्षीरी, सौपर्णी, शंखपुष्पी, इनके नामकरण का जो मनोहर अध्याय हमारे देश के निघंटु-वेत्ताओं ने प्रारंभ किया था, उसकी कला अद्वितीय है। एक एक ओषधि के पास जाकर उसके मूल और कांड से, पत्र और पुष्प से, केसर और पराग से उसके जीवन का परिचय और कुशल पूछकर उसके लिये भाषा के भंडार में से एक भव्य सा नाम चुना गया। इन ओषधियों में जो गुण भरे हुए हैं उनके साथ हमारे राष्ट्र को फिर से परिचित होने की आवश्यकता है। ___ वृक्ष और वनस्पति पृथिवी पर ध्रुव भाव से खड़े हैं ( यस्यां वृक्षा वान-स्पत्या ध्रुवास्तिष्ठन्ति विश्वहा, २७)। यो देखने में प्रत्येक की आयु काल से परिमित है; किंतु उनका बीज और उनकी नस्ल हमेशा जीवित रहती हैं। यही उनका पृथिवी के साथ स्थायी संबंध है। करोड़ों वर्षों से विकसित होते हुए वनस्पति-जगत् के ये प्राणी वर्तमान जीवन तक पहुँचे हैं, और इसके आगे भी ये इसी प्रकार बढ़ते और फूलते-फलते रहेंगे। इसी भूमि पर उन्नत भाव से खड़े हुए जो महावृक्ष हैं उनको यथार्थतः वन के अधिपति या वानस्पत्य नाम दिया जा सकता है। देवदारु और न्यग्रोध, आम्र और अश्वस्थ, उदुबर और शाल--ये अपने यहाँ के कुछ महाविटप हैं। महा. वृक्षों की पूजा और उनको उचित सम्मान देना हमारा परम कर्तव्य है। जहाँ महावृक्षों को आदर नहीं मिलता वहाँ के अरण्य क्षीण हो जाते हैं। सौ फुट ऊँचे और तोस फुट घेरेवाले अत्यंत प्रांशु केदार और देवदारुओं को हिमालय के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035307
Book TitleVikram Pushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Mahakavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1944
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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