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________________ पृथिवीमुक्त-एक अध्ययन और हमको वर्चस् से सींचे । कवि की वाणी सत्य है। मेघों से और नदियों से प्राप्त होनेवाले जल खेतों में खड़े हुए धान्य के शरीर या पौधों में पहुँचकर दूध में बदल जाते हैं, और वह दूध ही गाढ़ा होकर जौ, गेहूँ और चावल के दानों के रूप में जम जाता है। खेतों में जाकर यदि हम अपने नेत्रों से इस क्षीरसागर को प्रत्यक्ष देखें तो हमें विश्वास होगा कि हमारे धन-धान्य की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी इसी क्षीरसागर में बसती है। यही दुग्ध अन्नरूप से मनुष्यों में प्रविष्ट होकर वर्चस् और तेज को उत्पन्न करता है। कवि की दृष्टि में पृथिवी के जल विश्वव्यापी ( समानी, ९) हैं। आकाशस्थित जलों से ही पार्थिव जल जन्म लेते हैं। हिमालय की चोटियों पर और गंगा में उतरने से पूर्व गंगा के दिव्य जल आकाश में विचरते हैं। वहां पार्थिव सीमाभाव को लकीरें उनमें नहीं होती । कौन कह सकता है कि किस प्रकार पृथिवी पर आने से पूर्व आकाश में स्थित जल हिमालय के और कैलाश के शृंगों की कहाँ-कहाँ परिक्रमा करते हैं ? भारतीय कवि गंगा के स्रोत को ढूँढ़ते हुए चतुगंगम् और सप्तगंगम धाराओं से कहीं ऊपर उठकर उन दिव्य जलों तक पहुँचकर गंगा का प्रभवस्थान मानते हैं। उनके व्यापक दृष्टिकोण के सम्मुख स्थूल पार्थक्य के भाव नहीं ठहरते। __भूमि के पार्थिव रूप में उसके प्रशंसनीय अरण्य भी हैं । कृषि-संपत्ति और वन-संपत्ति, वनस्पति जगत् के ये दो बड़े विभाग हैं। यह पृथिवी दोनों की माता है। एक ओर इसके खेतों में अथक परिश्रम करनेवाले ( क्षेत्रे यस्या विकुर्वते, ४३) इसके बलिष्ठ पुत्र भांति भांति के ब्रीहि-यवादिक अनों को उत्पन्न करते हैं ( यस्यामन्न ब्रोहियवौ, ४२) और लहलहाती हुई खेती (कृष्टयः ३) को देखकर हर्षित होते हैं, तथा दूसरी ओर वे जंगल और कांतार हैं जिनमें अनेक प्रकार की वोर्यवती ओषधियां उत्पन्न होती हैं .( नानावीर्या ओषधीर्या बिभर्ति, २)। यह पृथिवी साक्षात् ओषधियों को माता है, ( विश्वस्वम् मातरमोषधीनाम, १७)। वर्षा ऋतु में जब जल से भरे हुए मेघ आकाश में गरजते हैं तब ओषधियों की बाढ़ से पृथिवी का शरीर ढक जाता है। उस विचित्र वर्ण के कारण पृथिवी को एक संज्ञा पृभि कही गई है। * एरियल वाटर्स। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035307
Book TitleVikram Pushpanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalidas Mahakavi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1944
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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